सोमवार, 6 जुलाई 2015

रिनिता मजूमदार की कविता

a nice poem
by 

After the nationalistic euphoria of July 4, I think some of us, at least, are ready for anti patriarchical voices, here is my feminist poem, which was published in a while ago, and has now been translated into my "native" language (no I am a firm anti nationalist, this is for me a nostalgia perhaps) by another poet, Atanu Singha, thanks Atanu.
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A Love Poem
Tread gently into my being,
For in my pierced naked body,
You will find maze of pyramids,
Curved out of centuries of precious sorrows.
Love me gently with your soul;
Smell my sweet-bitterness
Like the venom of Kalkut.
For in me,
Ahalya is still a stone
Silent suffering.
Bring your ears
Close to my breast,
Do you hear Behula moan?
Can you see in my crimson eyes,
Draupadi in her blood-stained clothes?
Come close to my soul,
Taste in my tears a thousand flickering lights,
Holding silhouettes of nameless Devadasis
Gliding, dancing in Ujjaini,
In Vidisha,
Hollow in their body,
Hollow in their minds.
Love my body that is shamed,
Love my body that descends into the belly of my Mother Earth,
Love my body that is sacrificed
Scorched and burned.
Love my body that is drenched in crimson blood,
Cut into thousand pieces
Strewned in Holy Shrines.
Caress me gently;
Pluck my soul
String by string;
And in your caress my body will open up
Into a thousand Arabian nights;
Nameless dusky harem
Echoing pale ashavaris
Of incessant grief.

If you love me
And tread gently into my being
You will find maze of pyramids
Studded with mystical kohinoors.
Together we shall weave a net
More powerful than Indra’s,
Spun from freedom, Magic, and Myth;
In it we shall gently fly into the land of endless dreams.
And, in the shadows of a thousand graves,
I shall recaste my body;
There in my tribal self
I shall be your Apsara;
And together we shall tear our net,
And strewn the magical freedom
Like petals of white jasmine flowers;
Then, gently we shall flow out into your joy,
And in my tears …….

रविवार, 5 जुलाई 2015

नागरिक Facebook 16 / 5 /15

नागरिक Facebook 16 / 5 /15

ईश्वर ने आदमी बनाया 
वह मर जाता है ,
आदमी ने ईश्वर बनाया 
जो मरता नहीँ ।

छोटे सवाल -
कितने लोग हिंदी में हस्ताक्षर करते हैं ?

* ATM पर chose language ( भाषा चुनिए ) में कितने लोग " हिंदी " चुनते हैं ?


कुछ कहने 
बोलने बताने की 
अभिलाषा 
साहस - कर्मनिष्ठा
मनुष्य को 
संत बना देती है ।
~~~~~~~~~

हम ईश्वर पर विश्वास नहीं करते । लेकिन वह दुबला पतला या हट्टा कट्टा ब्राह्मण चोटी बढ़ाये, चन्दन टीका लीपे, अड़बड़ गड़बड़ कोई मन्त्र जाप करते, घंटा हिलाते घड़ियाल बजाते, भले शिष्यों - श्रद्धालुओं को ठगते, मूर्ख बनाते सामने खड़ा है ,
वह तो मनुष्य है !
वह तो ईश्वर नहीं है ?
हम ईश्वर पर ही तो अविश्वास करते हैं ?

उलट पुलट कर लंका जारी ।
आप एक विज्ञापन देखते होंगे जिसमें एक सीमेंट विशेष से बनी दीवाल में कील ठोंकते आदमी rebound होकर पीछे गिरता है । 
लेकिन ऐसा तो है नहीं कि उस दीवाल में छेद बनायीं नहीं जाती ! ऐसा हो तो भवन के कई काम रुक जाएँ और पक्की मजबूत दीवाल भी अप्रयोज्य हो जाए ।
उसमें छेद drill मशीन से किया जाता है । Electrician उसे कटर से काटता है । drill और cutter गोल गोल चक्कर में घूमकर उसे काटते हैं , इसलिए काट सकते हैं , काट पाते हैं । औंधे मुँह वे गिरते हैं जो सीधे वार से उसमे छेद करना चाहते हैं । जैसा आप विज्ञापन में देखते होंगे ।
ऐसा ही हम तर्कबुद्गि, नास्तिकता के प्रचार और अन्धविश्वास पर वार करने में तरीका अपनाते हैं । घूम घूम कर , गोल गोल चक्कर लगा कर चारो तरफ से हम वार करते हैं । कभी हँसी मज़ाक करके कभी तीखी बात कहकर ! कभी उनकी हाँ में हाँ मिलाकर , तो कभी उनकी ना में हाँ मिलाकर । हर तरह से , जिस भी तरह हमारा काम सिद्ध हो ।
जैसे हनूमान ने उलट पुलट कर लंका को जलाया था , कहा जाता है । आग लगाने वाले जानते हैं बिना उलटे पलटे फूस भी पूरी नहीं जलती । कहीं दबी रह गयी तो फिर परेशान करेगी ।


मुझे नहीं पता कि नास्तिकता धर्म है या नहीं, या कभी यह धर्म बनेगी या नहीं । लेकिन जब मैं इस काम में रत या लीन होता हूँ तो मुझे लगता है मैं कोई धार्मिक काम कर रहा हूँ । वही उत्साह, वही आनंद ! या यह कहूँ कि मुझे बिल्कुल नहीं लगता कि मैं कोई धार्मिक कार्य नहीं कर रहा हूँ, या कोई अधार्मिक काम कर रहा हूँ ।

ब्राह्मण यदि गरीब हुआ तो उसे संतोष तो रहता है कि चलो कोई बात नहीं , दर्ज़े में तो मैं उच्च हूँ , खाने को नहीं है तो क्या । फिर निर्धनता तो उसकी शाश्वत नियति है, वरदान है ईश्वर का । बाभन को धन केवल भिक्षा । गरीबी मेरे लिए अभिशाप, अपमानजनक नहीं है ।
लेकिन सामाजिक सम्मानविहीन दलित के लिए धन ही केवल उसकी संपत्ति है । इसलिए निष्कर्ष यह निकलता है कि
दलित को संपत्तिवान होना ही चाहिए ।

हर व्यक्ति बताता है मेरा इष्ट यह है , मेरे इष्ट यह हैं ।
मैं सोचता हूँ मुझसे पूछा जाय तो मैं क्या बताऊँगा ?
क्या स्वादइष्ट ठीक न रहेगा ?

सबसे बड़ा योगी और नमाज़ी तो है मजदूर |
काम मिल गया तो दिन भर में योग के सारे आयाम , व्यायाम , अष्टांग वैसे ही पूरे हो जाते हैं | 
यदि काम नहीं मिला तो गाँव से मुंबई या पंजाब तक की यात्रा खड़े खड़े , उठते - बैंठते उससे तमाम नमाज़ पूरे अदा करा लेती है |

* वह कहते हैं - हमारा धर्म शाश्वत है, सनातन है | हम नास्तिक भी कह सकते हैं - हमारा धर्म तो मौलिक है | मूल धर्म है हमारा ! बिना किसी मिलावट और बनावट के ! बिना किसी ईश्वर, देवदूत, देवता, नेता, ब्राह्मण, पुजारी, संत-महात्मा, गुरु के हस्तक्षेप के | हमारा कोई सीमित, दीवारों से घिरा मठ-मंदिर-मस्जिद-चर्च-गुरुद्वारा भी नहीं है ! क्षितिज है हमारी सीमा, धरती और आकाश | सम्पूर्ण सृष्टि, समूचा सृजन हमारा कार्यक्षेत्र है !  क्या नहीं ?

* यदि मैं मुसलमान होता तो तुम मुझे गले लगाते, यदि मैं हिन्दू होता तो तुम मुझे अपना मानते , यदि मैं बौद्ध होता तो तुम मुझे अवतारों के वंशज बताते, यदि मैं जैन होता तो तुम मेरा आदर करते, यदि मैं सिख होता तो तुम मेरी बड़ाई करते, यदि मैं ईसाई होता तो भी तुम मेरा नववर्ष मनाते | 
अब मैं नास्तिक हूँ , तो तुम मुझसे घृणा करते हो ? कितनी असंगत बात है ? घृणित कारनामा ?

* मैं जाति वाति नहीं मानता |
अरे , तब तो तुम बड़े अच्छे आदमी हो ||
मैं छुआछुत नहीं बरतता , 
यू आर ग्रेट यार |
मैं काले गोरे, देशी-विदेशी, स्त्री-पुरुष 
में भेद स्वीकार नहीं करता ,
तुम तो भाई महान व्यक्ति हो |
मैं गरीबी अमीरी का भेद मिटाना चाहता हूँ ,
यह तो बहुत अच्छी सोच है तुम्हारी |
मैं दुनिया में युद्ध का विरोधी हूँ ,
अरे आप तो संत महात्मा, महात्मा गांधी हो | 
मैं किसी संत-महात्मा, देवी-देवता का अनुयाई नहीं हूँ ,
अरे, यह कैसे हो सकता है ?
मैं धर्म-वर्म को भी नहीं मानता,
तब तो गड़बड़ आदमी हो तुम |
मैं ईश्वर को भी नहीं मानता ,
अरे, क्या बात करते हो ? तुम तो निरा राक्षस आदमी हो | 
चलो दूर हटो , भाग जा यहाँ से, अधर्मी कहीं का !
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

वह कवि क्या 
मतलब सही कवि ,
जो संत न हो !

हर व्यक्ति बताता है मेरा इष्ट यह है , मेरे इष्ट यह हैं ।
मैं सोचता हूँ मुझसे पूछा जाय तो मैं क्या बताऊँगा ?
क्या स्वादइष्ट ठीक न रहेगा ?

सबसे बड़ा योगी और नमाज़ी तो है मजदूर |
काम मिल गया तो दिन भर में योग के सारे आयाम , व्यायाम , अष्टांग वैसे ही पूरे हो जाते हैं | 
यदि काम नहीं मिला तो गाँव से मुंबई या पंजाब तक की यात्रा खड़े खड़े , उठते - बैंठते उससे तमाम नमाज़ पूरे अदा करा लेती है |


अकेला ईश्वर तो है नहीं 
अल्लाह भी हैं 
और गॉड भी तो 
किसे छोड़ें , किसकी 
शरण में जाएँ ? 
नहीं, एकै साधे सब नहीं सधता
एक भी साधोगे तो
दुसरे सब नाराज़ हो जाते हैं
उनमे आपसी द्वंद्व बढ़ जाते हैं |
सो , सबसे निरपेक्ष रहना ही उचित
श्रेय और श्रेयस्कर
सबका विरोध
सबको प्रणाम !

वैसे भाई नीति तो यही है | कि किसी की मूर्खता पर मत हँसो | उसी प्रकार यह बात भी उचित ठहरती है | कि किसी धर्म की आलोचना मत करो ?

पदचिन्हों पर चलना यद्यपि व्यापक है ,
प्रश्नचिन्ह का गायब होना घातक है ।

मैं यह समझने में असमर्थ हूँ कि कोई कैसे कैसे कह देता है कि वह हिन्दू है या मुसलमान ? कोई कैसे जान लेता है कि वह अन्य आदमी हिन्दू या मुसलमान ? नाम को पर्याप्त सुबूत मानने से मैं इन्कार करना चाहता हूँ ।

हमेशा आदमी हिन्दू मुसलमान थोड़े ही रहता है ! कभी वह आदमी भी होता है । यह ज़रूर है कि आदमी की आदमीयत को उसका मज़हब अपने खाते में डाल लेता है , और मज़हब हर हैवानियत को आदमी के मत्थे जड़कर किनारे हो जाता है । सच है कि आदमी ज़िम्मेदार है आतंकवाद का , लेकिन मजहब पर भी कभी तो उँगली उठाई जानी चाहिए ?

चलिए, कुछ देर के लिए मानते हैं कि धर्म रहना चाहिए । लेकिन इसके पैरोकार सुधी जन यह भी मानते हैं कि धर्म की बुराइयों को हटाया जाना चाहिए ।
अब यह बताइये कि धर्म में क्या रहना चाहिए और क्या कालातीत, अप्रासंगिक हो गया है, इसे कौन तय करेगा ? धर्म प्रतिष्ठान और गुरु तो ऐसा करने से रहे ! तो यह बात तय तो आपका विवेक ही करेगा न ? 
फिर तो उसी विवेक को ही अपना सच्चा और असली धारणीय धर्म क्यों न माना और बनाया जाय ?
हिन्दू मुसलमान तो बस समझो जातियाँ हैं । धर्म तो एक है ऐसा तो आप भी मानते हो ।

आज मानो या कल मानो । मानो या बिल्कुल नहीं मानो । लेकिन यह बात तय मानो कि ईश्वर को मानना हर तरह से, समाज के लिए तो है ही, अपने लिए भी नुकसानदेह है ।

धर्म रहना चाहिए , आदमी रहे न रहे ।
(क्यों यही तो है न ? )

मुस्लिम देशों, शिया सुन्नी झगड़ों और मार काट पर कोई पोस्ट आता है , तो बचाव में कमेंट आने लगते हैं । इस्लाम यह नहीं है, वे मुसलमान नहीं हैं । इस्लाम तो यह, इस्लाम तो वह ! पैग़म्बर के सुकर्मों के उदाहरण आने लगते हैं ।
अब यहाँ दो बाते हैं :-
एक तो यह कि मानो यदि इस्लाम उसी शुद्ध और अपनी नैतिकता के अनुसार होता तो दुनिया स्वर्ग हो जाती ! क्या यह सत्य है ?
दूसरे यह कि इस्लाम यदि दूषित हुआ है तो भला ऐसा क्यों और कैसे होने पाया, परमशक्ति के वरदहस्त के बावजूद ? मुसलमान ऐसा कर रहा है तो ऐसा क्योंकर करने ही पा रहा है ? यदि मनुष्य ही उसके कर्मों के लिए ज़िम्मेदार है तो ईश्वर की फिर ज़रूरत क्या है ?
प्रश्न आखिर कब उठेंगे ? उठेंगे भी या ईश्वर के नाम पर ऐसे ही चलता रहेगा ?

अगर कोई मज़हब दावा करता है कि वह मोहब्बत सिखाता है , तो उसपर भी हमारा प्रश्नचिन्ह है । क्यो करें हम मोहब्बत ? आदमी मोहब्बत करने लायक होगा तो करेंगे ही, तुम चाहे कहो या न कहो । 
और कोई आदमी घृणित, बहिष्कार करने योग्य है या सजा का हक़दार है तो उससे क्या तुम्हारे कहने से मोहब्बत कर लें ?
और फिर, मोहब्बत हम करें, उसका श्रेय तुम ले जाओ ? कि देखो, मैंने ही इसे मोहब्बत करना सिखाया है ?

क़ुरान याद हो तो यजीदी लड़कियाँ मिलेगी ।
खबर तो जो है सो है । इस प्रकरण पर मैं पृथक अंदाज़ ए गौर रखता हूँ । मेरा ख्याल है कि इस मज़हब के प्रवर्तक और उसको फ़ैलाने वाले इंसानी प्रकृति और नीच प्रवृत्ति के अद्भुत ज्ञानी थे । उन्हें पता था कि मनुष्य के sex drive को लालच दे उसे किसी भी तरफ चलाया, drive किया जा सकता है ।
इसीलिए उन्होंने स्वर्ग में 72 हूरों का प्रबंध किया । और शर्त यह रख दी कि इस दुनिया में ज़िना (बलात्कार) नहीं करना । मतलब, यहाँ का अनुशासन तुम्हें वहाँ वृहत्तर सुख देगा । प्रमुखतः यौन सुख । है न लीडरशिप की बुद्धिमत्ता और मनो- मैनेजमेंट ?
सोचना पड़ता है, कहीं धर्म का मूल आकर्षण यौन सुख तो नहीं है ?

बात सही है । यह मुझे भी उचित लगता है, यदि नास्तिकता कोई धर्म (संस्था के रूप में) न बने। यूँ तो यह वैसे भी नहीँ बन सकता क्योंकि यह स्वतंत्र विचार पर आधारित है । इसलिए इसका धर्म बनना इसके लिए घातक होगा । क्योंकि इसका कोई नपा तुला आचार व्यवहार का कोई पैमाना तो है नहीं । हर सदस्य स्वतंत्र होगा । कोई कट्टर आतंकवादी बन सकता है । कोई महान वैज्ञानिक डॉक्टर इंजीनियर राजनेता बनेगा । कोई चोर उचक्का बनेगा तो कोई स्वतंत्रता संग्राम सेनानी । कहना न होगा शहीद भगत सिंह के नास्तिक स्वरुप को आदर नहीं देता, बल्कि शहीद के रूप में पूजा करता है ।
ऐसे में नास्तिकता, ठीक है कि नाम कमाएगी, लेकिन सच यह है कि यह बदनामी भी बटोरेगी । कम से कम यह गारंटी तो कतई है ही नहीं कि सारे नास्तिक उच्च कोटि के ही होंगे । तय यह है कि अन्य धर्मावलंबियों की भाँति नास्तिक भी अलग अलग प्रकृति और प्रवृत्ति के होंगे, और उन्हें कोई रोक नहीं सकता । ऐसे में यह विचार धर्म बन कर क्या करेगा ? ध्यान योग्य बात है कि धार्मिक लोग तो चाहते ही हैं कि हम धर्म बनें और वे हमसे पट्टीदारी का व्यवहार करें ।

धर्म तो धर्म , अपना क्या पराया क्या ?
प्रबुद्ध मित्र बताते हैं :- सरदार भगतसिंह का कहना था कि अपने धर्म की आलोचना ज़रूर करो । तभी उसकी बुराई जान पाओगे ! ( और उसमे सुधार कर पाओगे ? )
लेकिन मेरा ख्याल है कि वर्तमान परिप्रेक्ष्य और भारत के सन्दर्भ में इस्लाम को पराया मानना बिल्कुल गलत और अनुचित होगा । क्योंकि वह भी धर्म या मजहब के रूप में इस ज़मीन पर सक्रिय है और एक धर्मकी भूमिका प्रमुखता से, प्रभावशाली ढंग से निभा.रहा है । कहा भी जाता है कि वह इस देश की मिट्टी में पूरा घुल मिल गया है । इसलिए केवल हिन्दू को अपना मानना और सिर्फ उसकी आलोचना करना फलदायी न होगा । बल्कि यदि हम ऐसा करते हैं तो यह माना जाना स्वाभाविक है कि हम हिन्दू ही नही , सांप्रदायिक भी हैं । हिन्दू कौम पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा । अभी भी वह कहते ही हैं कि आप लोग 'उनके' बारे में कुछ नहीं लिखते/कहते ! तो, यह अपना पराया वाली बात मुझे त्रुटिपूर्ण प्रतीत हो रही है ।

क्या किसी विषय विशेष में ज्ञान की अल्पता या अभिज्ञता उसके लिए हीनबोध का कारण बन सकती है ? मुझे तो ऐसा नहीं लगता । मुझे मेरे देश पर कोई शर्म नहीं आती, कोई उपालम्भ नहीं होता, न इससे मेरे देशभक्ति में कोई कमी आती है कि भारत विमान बनाने की कला नहीं जानता था ( यदि ऐसा हो ? पौराणिक गल्प को परे रख दें तो ! ) । यह अन्य किन्हीं विधाओं में प्रवीण, पारंगत और अग्रणी रहा हो सकता है । यदि ऐसा भी हो तो उस पर भी गुमान करने की मैं कोई ज़रूरत नहीं समझता । ज्ञान-विज्ञान सम्पूर्ण मानव सभ्यता की संपत्ति और धरोहर है । महत्वपूर्ण यह होगा कि किसने व्यापक हित सोचा !
या अभी तक नहीं सोचा गया , तो अब से सोचा जाना चाहिए ।

So what if a person is recognized by his name ?
क्या हुआ यदि आदमी को उसके नाम से पहचाना जाता है ? 
तमाम मित्रों के साथ हम भी चिंतित हो जाते हैं कि हम नाम से ही हिन्दू जान लिए जाते हैं, मुसलमान पहचान लिए जाते हैं ? 
तो क्या ? नाम से ही तो औरत मर्द की भी पहचान हो जाती है ! तो क्या औरत मर्द साथ नहीं रहते ? 
इसी प्रकार , नाम है तो है । बस नाम के लिए । नाम से बाहर निकलें । उसे एक किनारे रखकर उसके भीतर के आदमी को पहचानें । और उसी को मान्यता दें । उसे निखारें । 
नाम को नकारें । यह केवल परिचय के लिए identity card भर है । उतनी आवश्यकता भर उसका काम सीमित रखें ।
मेरा नाम उग्रनाथ है , लेकिन यकीन कीजिये मैं अपनी विनम्रता के लिए जाना जाता हूँ । गुस्से में कुछ चीखना चिल्लाना अलग बात है ।

मुसलमान भाइयों की यह बात तो सही ही है । आतंकवादी संगठन कोई भी हिन्दू मुस्लिम नाम रखें, आतंकवादी किसी भी नाम से हों , उन्हें हिंदुत्व या इस्लाम से क्यों जोड़ें ? राजनीतिक रूप से वे हत्यारे हैं तो उन्हें हत्यारे मानें । 
मजबूरी सबकी होती है । हर कोई किसी मुल्क-देश का होता है, सबकी कोई खास भाषा होती है जिसमे उनके नाम शिक्षा दीक्षा होती है, उसके खानदान उसके धर्म का बैनर उसके साथ चिपकता ही है चाहे वह चाहे न चाहे । फिर उसे / सबको उन मजबूरियों से कुछ मोह भी हो जाता है, जिसे छेड़ने कुरेदने से उसे तकलीफ होती है । ऐसा ही हमें भी तो महसूस होता है ? फिर केवल मुसलमान को ही क्यों दोष दें । एक मित्र सही कहते हैं - सब आपके कथनानुसार- निर्देशानुसार तो आचरण-व्यवहार करेंगे नहीं । और इसकी आशा भी नहीं करनी चाहिए । 
धर्म मजहब भाषा राष्ट्रीयता आदि आदमी की मजबूरियाँ हैं । वह मजबूरी उनकी है तो वही आपकी और हमारी भी है । 
कुछ ऐसी समझ रखें तो कुहरा कुछ साफ़ होता दिख तो रहा है ।

पहले मैं जानता था 
नास्तिकों का कोई धर्म नहीं होता ,
फिर पता चला 
कम्युनिस्ट लोग अधर्मी होते हैं 
लेकिन इन्होंने भाषण दिया 
आतंकवादियों का कोई धर्म नहीं होता ।
अब अपने ज्ञान से मुझे लगा
आज़ादी के दीवानों का कोई धर्म नहीं हुआ करता ,
भगत सिंह, अशफाक़ुल्लाह क्या किसी कोण से हिन्दू मुसलमान थे ?
फिर तो ग़ालिब भी मुझे मुसलमान नहीं लगे
अर्थात, शायर-कवि का धर्म
धर्मातीत होता है ।
वैज्ञानिक, इंजीनियर, डॉक्टर
धार्मिक हो नहीं सकते ।
फिर मैं उलझन में हूँ
धार्मिक कौन लोग होते हैं ?
|~~~~~

आ बैल मुझे मार = 1 
यदि पकिस्तान में आतंकवादी प्रशिक्षण शिविर चल रहे हैं तो भी हम यह नहीं कहना चाहते कि इससे इस्लाम का कोई लेना देना है |
लेकिन जब आपने स्वयं अपने देश को इस्लामी राज्य घोषित किया हुआ है , तो यह आँच अपने आप लग जाती है |

आ बैल मुझे मार = 2
कहते हैं खाली दिमाग शैतान का घर | अंग्रेजी में - Empty mind is devil's workshop .
इसलिए पुराने लोगों ने दिमाग को ईश्वर, धर्म और देवी देवताओं से भर दिया | जिससे उसमे शैतान प्रवेश न कर पाए |
उन्हें पता नहीं था कि वे वही तो कर रहे हैं !
इससे अच्छा था दिमाग को खाली रहने देते | और उसे आदमी के हवाले कर देते !




IHU June 2015

WORLD HUMANIST DAY
      1.0 World Humanist Day is celebrated on 2tst June. In a sight adjustment for operational reasons, the Indian Humanist Union celebrated it on 20 June 2015 at a meeting at the New Fiends Club (East), New Delhi. The meeting was hosted by Prof Javed Husain Vice Chairman IHU. The subject of discussion was “Humanist Movement in India and Abroad - its Problems and Prospects.”
      2.0 IHU Chairman Air Marshal Vir Narain, informed the House of the recent demise of the mother of Shri Anil Bhandari, Administrative Secretary IHU and as suggested by him   the participants stood in two minutes silence as a mark of respect to her.
       3.0 At the request of Prof Javed Husain Vice Chairman IHU, Shri Anas Khan recited a number of excellent poems in Hindi and Urdu
      4.0 Air Marshal Vir Narain presented a Paper entitled “Looking Back on World Humanist Day”: A copy is enclosed in the Attachment.  It would be seen that in conclusion he emphasized the need for the IHEU “to build and represent the global Humanist movement, to defend human rights and to promote humanist values world-wide.” as brought out in Amsterdam Declaration 2002. He also referred to humanism being against “authoritarianism” and “dogmatism” and advocated that Humanism must not take an “ anti- religious” stand  but try to be a movement which will satisfy the emotional  needs that traditional religions fulfilled but  without becoming  authoritarian and dogmatic in that process.  
        5.0 Shri Prakash Narain former Chairman IHU and Member Policy Commission of IHEU, quoted from the Objectives of the IHU to say that humanism basically had two core values that is love for fellow beings and adherence to the principle of free enquiry and belief. According to him, in the context of   Humanism being an alternative to traditional religions, as enjoined at the founding of IHEU in1952, the crucial issue becomes the spirit of free enquiry and belief as most of the traditional religions believed in some “divinity” which in turn is an “unquestionable” entity.
       3.0 Shri RC Mody observed that quite often humanist leaders complimented Buddhism as a traditional religion which believed in free enquiry and belief. This did not appear to be correct as Buddhism did believe in “re - incarnation”.  Shri Prakash Narain said that many para-scientific phenomena like ‘telepathy’ were fully accepted now and there was growing evidence for post - demise temporary survival of memory, if not of reincarnation. He felt we had to keep an open mind on such issues. In any case, he felt, belief or disbelief in “re-incarnation’’ does not affect the question of “free enquiry” which was crucial to the concept of humanism.
       4.0 Shri RK Jain observed that Jainism did believe in free enquiry [ This is perhaps true  of the original philosophy of Jainism but in my search for non theistic songs for  a humanist anthology, I  found that in  current Jain “Bhajans” the concept of “ Bhagwan” or “Divinity” seems to be omnipresent – Editor].
        5.0 The question of future humanist activities came up. Air Marshal Vir Narain Chairman IHU said that the IHU was trying to bring about “attitudinal changes” through   discussions, seminars, talks, HRG Meetings, publication of quarterly journal, participation in IHEU activities etc. More did not appear feasible till a younger membership profile emerged.
         6.0 Prof Javed Husain Vice Chairman IHU   said more than before is being done on the Internet and Social media but much   more can be  done.   Shri Prakash Narain felt that we need not feel too discouraged as even the internal discussions like in Humanist Reading Group meetings and their coverage by the monthly IHU On Line News Letter, helped in bringing about “attitudinal” changes amongst humanists themselves. He agreed that Internet or social media needs greater participation and this would attract a younger membership and more “IHU Friends”. He lauded the efforts of Prof Javed Husain in is respect.  Since many of IHU Members were not very Internet or Social Media proficient, it was decided that information coming on Internet regarding meetings of other rationalist or free thinking groups in Delhi, would be passed on by Prof Javed Husain by email to IHU Members in Delhi.  Shri Prakash Narain agreed to send to Prof Javed Husain  a list of IHU Members in Delhi and their email id’s  which is readily available with him in the context of the monthly IHU  On line News Letter.