मंगलवार, 26 फ़रवरी 2013

NAGRIK BLOG 26 Feb. 2013


[ कविता ?]
* मैंने सड़क पर 
झाड़ू लगा दिया है ,
पानी का छिडकाव कर दिया है ;
अपना काम पूरा कर दिया है |
अब उस पर चाहे राष्ट्रपति आयें 
चाहे प्रधान मंत्री , मुख्य मंत्री ,
या चाहे कुत्ते दौड़ें 
मुझसे क्या मतलब ?
[ कर्मनिष्ठा ]
# #

* कुछ छोड़ दें 
तो पा भी लें ज़रूर 
कुछ न कुछ |

* प्रेम संबंध
नाजायज़ संबंध 
माना क्यों जाए ?

* सोचता नहीं 
अपने बारे में मैं 
स्वस्थ रहता |

* चलिए सही 
जबानी जमा खर्च 
कहा तो सही !
[ Haiku]

* सेक्स कहते हुए ज़रा अच्छा नहीं लगता | प्यार इसके लिए शालीन शब्द है | इसलिए ऐसा बोलते हैं |

* कहा करता हूँ , लिखा करता हूँ ;
फ़र्ज़ अपना है अदा करता हूँ |

* वर्तमान लोकतान्त्रिक व्यवस्था में एक तो परिवर्तन फ़ौरन अपेक्षित है | वह यह कि चुनाव के ज़रिये स्थापित हो जाने के बाद नुमाइंदों को शासक बन जाना चाहिए , न कि विभिन्न समुदायों , वोट बैंकों के समक्ष रिरियाते भिखारी | क्योंकि जनता वाकई शासन , अच्छा शासन चाहती है | उसे इस बात से ज्यादा मतलब नहीं होता कि आप कितने लोकतंत्र का दिखावा करते हैं | और मानना होगा कि इस प्रणाली में governance का बहुत नुक्सान हुआ है जो अंततः लोगों का विश्वाश लोकतंत्र पर से ही उठा देगी | तब तो बहुत बड़ा नुक्सान हो जायगा | इसलिए समय रहते लिजलिजे लोकतंत्र को , कम से कम भारत के सन्दर्भ में , बदल कर रीढ़ की मजबूत हड्डी में तब्दील हो जाना चाहिए | अतः एक तो अन्य लोगों का सुझाव है कि राष्ट्रपति प्रणाली लागू हो | दूसरे मेरी बात को किसी प्रकार व्यावहारिक बनाया जाय कि जिस तरह शंटिंग करने के बाद रेल का इंजन अलग हो जाता है और गाडी को दूसरा इंजन ले जाता है , उसी प्रकार चुनी हुई सरकार को एक तरह से कहें तो , तानाशाह हो जाना चाहिए | यह कोई बुरी बात तो नहीं | सर्वहारा की तानाशाही तो बाबा मार्क्स भी कह गए हैं ? 

* कल मैंने स्नान किया था ,
और तुम्हारा ध्यान किया था ;
फिर जो भला बुरा था अपना 
सभी तुम्हारे नाम क्या था |
[#]

* हिंसा यदि व्यक्ति का क़त्ल करती तो शायद हमें इतनी तकलीफ नहीं होती | वह सत्य का क़त्ल करती है |"  
[ उवाच ]

[ मानव प्रेमी ]
* हमने लिखा था - धर्म के स्थान पर मानव लिखो और उसके आगे धर्म भी लिखो | यानी - " मानव धर्म " | पर क्या अब समय नहीं आ गया है, या नहीं तो कब आएगा कि धर्म का नाम ही न लिया जाय ? तो अभी से क्यों न लिखा जाय - धर्म = " मानव प्रेमी " ? प्रेम , आखिर तो हमारा धर्म है ? 

* आप मुझे ब्राह्मण - सम ही त्याज्य समझें , हमें कोई परेशानी नहीं है | लेकिन हम जन्म से जो कुछ भी, जिस भी जाति के थे, उसका परित्याग कर चुके हैं |  

Universal Knowledge :
* ब्रह्मज्ञान, जिसकी बड़ी महिमा गई गयी है, उसे हम सृष्टि - प्रकृति - अंतरिक्ष और ब्रह्माण्ड के ज्ञान के रूप में क्यों परिभाषित नहीं कर सकते ? आज के समय - आधुनिक युग के अनुरूप ? विज्ञानं ही ब्रह्म है, ऐसा क्यों नहीं हो सकता ?   

* यदि आपने आदमी को मारने का कोई औचित्य मन में बना लिया तो फिर आप आदमी को अनुचित भी मारेंगे ही | "
[ उवाच ]

* आप लोगों के वश का काम नहीं है यह ! जातिवाद को तो मैं ख़त्म करूँगा !

* ब्राह्मणवाद का एक दोष तो मैं स्पष्ट पकड़ पा रहा हूँ - कि इसने अच्छे दलित नहीं बनाये |

* असमर्थ :=
मैं यह नहीं समझ पाता कि औरतें बंद बाथ रूम में भी पूरे कपडे - साड़ी ब्लाउज पेटीकोट और वगैरह सहित , पूरी वस्त्रावृता होकर क्यों नहाती , स्नान करती हैं ? कहीं वही कृष्ण - गोपिकाओं वाला पुराना किस्सा, वरुण देवता का भय तो नहीं काम कर रहा है ?   

रविवार, 24 फ़रवरी 2013

Nagrik Blog 24 / 2 / 2013


* अधूरी गजलों का संग्रह मैं हूँ ,
लोक - परलोक का विग्रह मैं हूँ |

* कहते तो हैं प्यार की बातें / 
करते नहीं इकरार की बातें |

* ईश्वर - अल्ला ढूँढ कर देखो ,
अपनी आँखें मूँद कर देखो ;
मूंदहु आँख कतहूँ कछु नाहीं ,
फिर तो आँखें खोलकर देखो |

‎[LINES ]
* हिम्मत है तो बोल कर देखो ,
लिखकर या मुँह खोल कर देखो |

* हिम्मत है - मैदान में आओ '
दूर दूर से मत डरपाओ |

* दिल का हाल बताया तो !
मैंने प्यार जताया तो !

* फोन करने की तो हिम्मत नहीं है ,
चले हैं डरने वाले प्यार करने !

[ गीत ]
* हर्ज़ क्या अपनों से कहने में , अपने मन के बुरे खयालात ?
प्रश्न जिनके न मिल सके उत्तर , मन में उठते हुए सवालात ?

[ शेर ]
* गजलों में बड़ी मोहब्बत की बातें ,
देखो तो कैसी हैं तरेरती आँखें !

* यदि ईश्वर तुम्हे आदेश न दे तो क्या तुम मुझसे प्यार नहीं करोगे ?

* जो आप बोल रहे / रही हैं, उसका अर्थ प्रकारांतर से यह निकलता है कि मानो 'अल्लाह' नहीं है | तो बहनों और भाइयो उसका मतलब प्रकारांतर से तो यह भी सिद्ध होता है कि कोई 'ईश्वर' भी नहीं है |

* मेरा ख्याल है , प्यार जताने से पहले मुझे [ मतलब हर किसी को ] अपना चेहरा शीशे में देख लेना चाहिए |

* यह तो आपने अपने यह तो आपने अपने प्रिय / परिजनों से कहा होगा, उनके मुँह से सुना होगा कि मौसम बदल रहा है , अपना ख्याल रखना | अब इसे उलट कर मैं यह कविता लिख रहा हूँ :-

* मौसम, सावधान !
मैं बदल रहा हूँ ,
तुम ,
अपना ख्याल रखना | 
# # 
[ कविता बनी या नहीं ?]

* वस्तुतः तो लोकप्रिय वही होगा , जिसमें लोकप्रियता खोने की कुव्वत होगी |
[ उवाच ]

# आज लखनऊ में ओले पड़े | इस पर अपनी एक पुरानी [एक शेर की ] ग़ज़ल याद आई | :--
* ओले पड़े हैं आज तो घबरा रहे हैं आप ,
किसने कहा था आप मेरे साथ आइये ?

* शिक्षा का मतलब है - एक अतिरिक्त मात्रा जोड़कर = सभ्यता | 

* प्यार है ? ठीक !
ज़रा दूर रहिये 
तब तो जानें !

* मिट जायेगा 
भ्रम को भ्रम कहो 
तो कुछ बार !

* साज़ न होते 
देखते क्या तो गाते
आवाज़ वाले !

* लगता मानो
रस सूख गया है 
गीत न भाते |
[ हाइकू ]

* प्यार तो तब मानें जब किसी अन्य की सूरत मन को न ललचाये , उससे उत्तेजना ग्रहण करने की बात तो दूर | जैसे मीरा का " मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरा न कोई " |

* मैं जो सिगरेट पीता हूँ उसका अधिकतम मूल्य 48 रु प्रति डिब्बी [दस सिगरेट] है | फुटकर एक सिगरेट लूँ तो 6 रु देने पड़ते हैं | अर्थात, यदि बीस पैसे एक माचिस की तीली के लगा लिए जायँ, तो एक सिगरेट पर  विक्रेता एक रु मुनाफा लेता है | वह भी क्या करे ? अठन्नी तो चलती नहीं | हैं भी छोटे व्यापारी बेचारे पान सिगरेट चाट छोले खोमचे वाले ! वे कोई आयकर दाता की सूची में तो हैं नहीं ! 

* घर में अखबार आता था तो सवेरे सवेरे उसे लेकर बैठ जाता था, और बाहर टहलने जाने का मौक़ा नहीं मिलता था | अब मैंने अखबार लेना बंद कर दिया | जब लखनऊ में रहता हूँ तो अखबार का चस्का या आवश्यकता  होने के कारण उसे खरीदने पैदल चलकर जाता हूँ | इस बहाने थोड़ा टहलना हो जाता है, जो इस आयु के स्वास्थ्य के लिए बहुत ज़रूरी है [ लोग बताते हैं ] |

* तुम भी क्या बात करते हो यार नागरिक ! कहना  तो यहाँ बच्चों का भी  मानना पड़ता है, और वह तो भगवान् [?] है |

* बातें कितनी सिमट गयी हैं, तुमसे मिल जाने के बाद ,
आँखें कितनी फ़ैल गयी हैं, तुमसे मिल जाने के बाद !

नैतिक मार्क्सवादी =
भला हम क्यों न मार्क्सवाद को महत्त्व व आदर देंगे ? मार्क्स जीते जागते आदमी थे , कोई काल्पनिक देवता नहीं | उन्होंने तप, त्याग- तपस्या की , अपना जीवन खपाया | तो वह निर्मूल तो नहीं होगा ! अतः, मार्क्सवाद मानव की धरोहर है | उससे आपत्तियाँ जो हैं व्यक्तिगत मेरी [ पार्टी और संगठनों में न जाने का यह कारण हो या न हो ] कि उसमे व्यक्तिगत नैतिकता का व्यवहार मार्क्सवादियों के आचरण में दृष्टिगोचर नहीं हुआ | बस यही तो ? उसे दूर कर लीजिये | नैतिक मार्क्सवादी बन जाइये | पर मार्क्स की मोटी मोटी यह बात तो सच है कि सारे व्यवहार धन संपत्ति , रूपये पैसों से तय होते हैं | वह इसे उत्पादन की शक्तियाँ वगैरह कहते हैं | जो भी हो, यदि इसे ध्यान में नहीं रखा तो निश्चित दुःख पाओगे - Tension & shock |  

इस सत्य को गाँठ बाँध लीजिये | इसमें कोई साम्प्रदायिकता नहीं है | इसे जान लेने में कोई हर्ज़ भी नहीं है | इससे अपने व्यवहार को सँभालने में आसानी होती है | इस तथ्य से अनावश्यक उत्तेजित न हों | वह यह कि हमारे मुसलमान भाई सदा मुसलमान ही रहेंगे | इसमें कोई बुराई नहीं है , न कोई पाप | यह उनकी, उनके बनावट की मजबूरी है | दुनिया के किसी भी कोने में मुसलमान के साथ जो होगा उससे वे प्रभावित और आंदोलित ओङ्गे , यह मान कर चलिए | मुसलमान पहले और सबसे पहले मुसलमान होंगे फिर कुछ और | [सत्यंवद ]  

" अगर मुसलमान आतंकवाद का साथ देता है तो वह सच्चा मुसलमान नहीं है "
[ a statement from seminar @ Centre for Objective Research & Development (Lucknow) ]
= फिर पुरोहित का ज़िक्र ' हिन्दू ' के रूप में क्यों करते हो भाई ? उन्हें भी सच्चा हिन्दू न मान लेते |

अंतर / फर्क / Difference =
इसे लोग भूल जाते हैं | बल्कि करते ही नहीं | हिन्दुस्तान में हिन्दू उग्रवाद विद्रोह है, पाकिस्तान में इस्लामी उग्रवाद राज्य से विद्रोह है | पाकिस्तान में हिन्दू उग्रवाद आतंकवाद है, हिंदुस्तान में इस्लामी उग्रवाद आतंकवाद है | [ आमीन ]  
सही बात है रति जी | लेकिन कहीं से भी अच्छे और मूल्यवान विचार लेने और उस पर अमल करना तो हमारी संस्कृति बननी चाहिए [ सदा रही है - लोग कहते हैं ] |

* यदि जाति ही हिन्दू धर्म की पहचान है [ जैसा कि विद्वान लोग बताते हैं ] , और वह मिट नहीं सकती , तो हिन्दू बने रहने के लिए तो हमें जाति माननी ही पड़ेगी !  [ nonsense ? ]

अब हम " विक्षिप्ताश्रम " में जाने को सोच रहे हैं | क्या कहा ऐसी कोई व्यवस्था भारतीय संस्कृति में नहीं है ? तो हम नयी बनायेंगे न ? जानते हैं , यह आश्रम संन्यास आश्रम में जाने से बचने का पूर्वाभ्यास है |

* कहीं नहीं है 
तो यहीं क्यों हो भला 
ईमानदारी |
* कविता नहीं 
अहंकार पहले  
आता कवि में | 

* अभी सेक्स को खुली मान्यता नहीं मिली हुयी है इसलिए युवा लोग 'प्यार' का नाम लेकर गलत संबंध बनाते हैं, एक दुसरे को धोखा देते हैं | अभी उसे मान्यता प्राप्त हो जाय तो देखिये इनका सार प्रेम - प्यार हवा - हवाई हो जाय ! 

" Man without Mission "
* यद्यपि मैं कोई क्रांतिकारी नहीं हूँ, न क्रांतिकारिता का बहुत मुरीद ही | बल्कि मैं तो उसके पक्ष में ही नहीं , उसका विरोधी भी हूँ | कह सकते हैं यथास्थितिवादी हूँ | तथापि मुझे निष्प्रयोजन जीने वाले लोग पसंद नहीं आते | वह मिशन भले ही कोई साधारण सा जीवन का दार्शनिक विचार हो | यथा - औरत मर्द में फर्क नहीं करेगा , कतई बलात्कार नहीं करेगा | या जाति भेद नहीं मानेगा | या यहाँ तक कि वह हमेशा बाएं चलेगा और ज़ेबरा लाइन पार नहीं करेगा |  

शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2013

Nagrik Blog 22/2/2013


* हट जाऊँ 
तुम्हारे सामने से 
शायद तुम्हारे दिल में 
मेरे लिए 
प्रेम उपजे !
# #  [blog]

प्यार का चक्कर 
* जब से मैंने माना कि प्यार जैसी कोई चीज़ नहीं होती , तब से मनस्क्लेश का एक नया चक्कर शुरू हो गया | कि हाय ! तब तो मुझे भी कोई प्यार नहीं करेगा , अब क्या करूँ , मेरी जीवन नैया कैसे पार होगी ?   क्या यह ऐसे ही नीरस और शुष्क रह जायगी ? 
लेकिन आगे का ध्यान किया तो पाया कि प्यार का जो जल तुम्हे दिखाई दे रहा है , वह तो विज्ञानं के टोटल रिफ्लेक्सन का खेल है | वहाँ पानी नहीं है | इसी फेनामेना को मृग तृष्णा कहा जाता है | तब मन को समझाया - रे मन , जब प्यार जैसी कोई चीज़ होती ही नहीं तो तुझे कोई प्यार क्यों करेगा ? कर ही कैसे सकता है ? तो सच्चाई तो यही है , इसे सहर्ष स्वीकार करो | ऐसे में तो यदि कोई तुमसे कहे कि " मैं तुमसे प्यार करती हूँ " तो उसे केवल तन की भूख समझो | उसे मन से मत जोड़ो वर्ना भ्रम और मृग मरीचिका में पड़ोगे तथा दुःख और संताप झेलोगे | अच्छा ही तो है और सही भी जो मुझसे कोई प्यार नहीं करता | इसकी आशा ही मत करो क्योंकि वस्तुतः ऐसी कोई चीज़ नहीं होती | निश्चिन्त - निष्काम चैन की नींद लो ,और अपना जीवन सार्थक सार्वजानिक कार्यों में लगाओ | शरीर की आवश्यकता को, शरीर की आवश्यकता की तरह पूरी करो | प्यार के चक्कर में मन और आत्मा का सत्यानाश मत करो | इससे एक लाभ यह भी है की तुमसे कोई यह नहीं कहेगा की तुम उसे प्यार करो | न तुम किसी को प्यार करो , न कोई तुमसे प्यार करे तो जीवन में न लाभ हो न घाटा , न इनकी बिलावजह चिंता , न कोई फ़िल्मी उपन्यास कथा का निर्माण , जिनसे प्रोत्साहित होकर तमाम युवा ज़िंदगियाँ बरबादी की और कदम बढ़ाती हैं | आमीन |    [ blog]

* मैं  हमेशा सच ही नहीं बोलता | कभी कभी, नही ज़्यादातर तो मैं झूठ ही बोलता हूँ | जैसे कहता हूँ - मैं प्यार करता हूँ , हे प्रियतम ! प्रिय मित्र के संबोधन से पत्र प्रारंभ करता हूँ | और यह भी तो कहता हूँ - हे ईश्वर ! प्रभु जी तेरा सहारा ! भगवान् आपका भला करे | जब कि यह सब झूठ है - न प्रेम जैसी कोई वास्तु है, न ईश्वर का कोई अस्तित्व | मैं सत्य कहाँ बोलता हूँ ? [blog ]

* अल्ला देख रहा है 
कोई देखे या न देखे अल्ला देख रहा है | बहुत से धार्मिक, सांप्रदायिक, राजनीतिक संस्थाएं और संगठन तमाम ऐसे काम कर रहे हैं, उन्हें मैं यह तो कहने का सहस नहीं करूँगा कि वे राष्ट्र हित में नहीं हैं, लेकिन वे सामान्य जनता को समझ और पसंद नहीं आते | ज़ाहिर है वे अपने कर्मों पर लीपा पोती करके उनका औचित्य सिद्ध करते हैं | मैं उनसे यह कहना/बताना  चाहता हूँ कि जनता भले आपके खिलाफ कुछ कह / बोल नहीं पा रही है लेकिन जान लीजिये कि वह बड़े ध्यान से आप लोगों को देख रही है और अपना मन कुछ बना रही है चुपचाप , जो समय पर , यदि उसे मिला तो , ज़ाहिर होगा | इतना मूर्ख न समझिये हमें कि आप झूठी साफ़ सफाई दें और हम मानते जाएँ | इनके अतिरिक्त इनके समर्थक एन जी ओ संगठनों और अग्रजन व्यक्तियों से निवेदन है कि इस देश में वैसे ही ३३ करोड़ देवता हैं , और उनसे देश कम परेशान नहीं है | अब आप लोग भी देवता और भगवान् बनकर इनकी संख्या में वृद्धि न करें | आदमी बने रहिये और साधारण आदमी की तरह ही सोचिये और उसका साथ दीजिये | समय देख कर रंग और राजनीति बदलियेगा तो अभी कुछ पैसा कौड़ी और ख्याति मिल जा रही है , अंततः आपको इतिहास की धूल चाटनी पड़ेगी |    [ अस्पष्ट Ambiguous बयान ]

* " CULTURE  IS POLITICS OF SOCIAL LIFE  "
इस विचार को सोचते जायंगे तो इसे क्रमशः सत्य ही पाएंगे | यह तो हम एक दूसरे से शिष्ट सभी - प्रेम व्यवहार करते, सलाम दुआ, खान पान करते, तीज त्यौहार मानते / शरीक होते हैं, सब ज़िन्दगी की राजनीति है | राजनीति का मतलब जिसमे बनावट और झूठ ज्यादा हो और सच्चाई की मात्रा कम | इस प्रकार हम अपने सुख और शक्ति को बढ़ाते हैं | अन्यथा हम अकेले , अलग थलग न पड़ जायं ? इसीलिए जो सीधे सादे लोग सामाजिक कम होते हैं वे कमज़ोर पड़ जाते हैं | और जो समाज Social Life को सक्षम राजनीतिक रूप से जीता है वह अधिक शक्तिशाली हो जाता है | यहाँ तक की वह राज / शासन करने की स्थिति में आ जाते हैं |  

* धोखा है , सब फरेब है इस युग के प्यार में ,
बरबाद एक पल भी न कर इंतज़ार में |

* मैं किस किस को कितनों को जवाब देता फिरूँगा ? मैं कोई परीक्षार्थी नहीं जो उत्तर लिखने को विवश हूँ | और मैं शिक्षक भी नहीं जो विषयों को समझाने के लिए क्लास लेकर बैठूँ | जिसे चिंतन की गहराई में जाना हो वह जाय, न जाना हो तो इसे भूल जाय | मैं इसी प्रकार " उलटी गंगा " बहाता और लिखता हूँ कोई पढ़े यह ज़रूरी नहीं | लेकिन कोई मुझसे घिसी पिटी लकीर का फकीर समझने की भूल न करे | और  यह तो बहुत प्राथमिक विषय है | नास्तिकता का प्रसार बहुत पुराना है | सिद्ध -असिद्ध पाठक की ज़िम्मेदारी है |

* कोई लिक्खाड़ बड़े आराम से यह लिखकर पोस्ट कर सकता है कि यह सब किया धरा सरदार पटेल का है | उन्होंने ही जबरदस्ती हैदराबाद को हिन्दुस्तान में मिलाया था, जिसका खमियाजा राष्ट्र को भुगतना पद रहा है | 

* यह क्या भाई ? हैदराबाद धमाका के सम्बन्ध में कुछ मुसलमान जैसे नाम सुनाई दे रहे हैं ! बिलकुल झूठ | असम्भवामि !

[ गीत शुरू ]
* (प्यार) प्रेम को अभिव्यक्ति मत दो !
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* ईश्वर होता तो क्या मैं कह पाता कि ईश्वर नहीं है ?

* " वो हँस के मिले हमसे , हम प्यार समझ बैठे "
- यही है प्यार का हाल | ऐसे ही होता है प्यार और आदमी हलकान होता है |
मेरा तो फ़र्ज़ है आदमी को धोखे खाने से बचाना | वह मैं पूरा कर रहा हूँ | कोई माने , न माने |

औरतें, मेरा ख्याल है, आतंकवाद निर्मूलन की दिशा में अत्यंत महत्त्वपूर्ण योगदान कर सकती हैं | आठ मार्च, अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस आने वाला है | उनके जुड़े में एक मयूरपंख लग जायगा | समाप्त तो वे देश से भ्रष्टाचार भी कर सकती हैं क्योंकि उन्हें पतियों की कलि कमाई का पूरा पता होता है | और यदि उनसे वे कह दें कि गलत पैसा कमाओगे तो मैं तुम्हे खान या ऐसा ही कुछ नहीं दूँगीया फिर तलाक़ दे दूँगी तो क्या मजाल डरपोक प्रेमी पति की जो एक रुपया भी घूस ले ले | लेकिन मैं इतना बड़ा खतरा उठाने को उनसे नहीं कहूँगा क्योंकि फिर उनके सेनुर टिकुली अंगूठी, कानो की बाली वगैरह खतरे में पड़ जायगी | लेकिन इतना तो अवश्य कहूँगा कि यदि उन्हें ज्ञात हो कि उनका पति आतंकवादी कार्यवाहियों में लिप्त है तब तो उसे अवश्य ही देश हित में पहले तलाक़ की धमकी दें और तब भी न मने तो तलाक़ दे दें | या हम लोगों के गाँव में जैसा होता है चुपके से किसी और पर ' बैठ ' जाएँ/ दूसरा घर कर लें | बच्चू को पता चल जाय आतंक की क्या सजा हो सकती है ? 
[ khyali pulao]

यह भला " हुडदंगी " कौन सी नयी जमात पैदा हो गया या नया नया कोई एन जी ओ बन गया इतनी जल्दी देखते ही देखते ? फिर यह आन्दोलनकारियों के बीच क्या कर रही थी, और कमाल कि उसकी शिनाख्त हडताली हुजूम भी नहीं कर पायी और इनकी करतूतों के कारण बिलावजह बदनाम हुयी | अभी तक बजरंगी नाम ही बदनाम था, अब उनके चलते हुडदंगी भी बदनाम हो गए | कहीं ऐसा तो नहीं कि ये वे लोग हैं जिनका कोई "मर्म" नहीं होता, जिस प्रकार आतंकवादियों के लिए कहा जाता है कि उनका कोई "धर्म" नहीं होता ? 
[ astray thoughts ]

शुक्रवार, 15 फ़रवरी 2013

Nagrik FB 9/10/11/12/13 February 2013

* लगता नहीं है मन मेरा उजड़े दयार में |

* भाइयो थोडा हिंदुत्व को भी वैज्ञानिक होने का दावा पेश करने दिया जाय | युवाओं को मंदिर के कंगूरे पकड़ाने के बजाय उन्हें विज्ञानं अध्ययन की सुविधा दी जाय | क्या करेंगे ? कितने मंदिर चाहिए ? वह भी अयोध्या में , जो मंदिरों से अटा पटा पड़ा है ? अभी तो कुछ लोग जुगुप्सावश जा भी रहे हैं, भव्य मंदिर बनने पर वहां सिर्फ सैलानी जायेंगे | भक्त जनों के लिए तो हनुमान गढ़ी, दशरथ दरबार, सीता रसोई बहुत है |     
तो इसलिए ,सारे ही परिसर को " अयोध्या विज्ञान केंद्र " बनाया जाय | हम दानिश्वर ज़िम्मेदार हिन्दू ऐसी सलाह सरकार को और भाजपा सहित सभी पार्टियों को क्यों न दें , और इसे अमल में लाने का दबाव क्यों न डालें ? क्या सब कुछ साम्प्रदायिकों के ही कहने से चलेगा ? हम रेशनलिस्ट हिन्दुओं की कुछ भी नहीं चलेगी ? तो क्या हिन्दुस्तान भी पाकिस्तान की तरह आतंकियों की गिरफ्त में न आ जायगा ? इतिहास को हम क्या उत्तर देंगे यह भी तो सोचिये ? कि हम मौजूद थे फिर भी गड़बड़ हो गया | इस प्रस्ताव में तो किसी की धार्मिक भावना को चोट भी नहीं है | पत्थर तराशे रखे भी हुए हैं | मुसलमान भी अपना हक छोड़े | सारी ज़मीन समतल कर दी जाय | हाँ , एक विकल्प दिया जा सकता है - विज्ञानं केंद्र का नाम ' श्री सीता राम चन्द्र ' के नाम स्मृति स्वरुप समर्पित किया जा सकता है |

* कुतर्क ज्यादा चल रहा है | कभी कभी ऊब, वितृष्णा होने लगती है | अरे हिन्दू नाम है तो है , गलत सलत ही सही !जैसे भूपट , दिगंबर , श्रीनिवास | क्या वे वास्तव में ऐसे हैं ? फिर हिन्दू के लिए ही हिन्दू होने कि जिद क्यों ? हम तो नास्तिक हैं , तो भी हिन्दू हैं | क्या क्या बदलें ? गलियों, सड़कों, पार्कों, दादा नानी, माँ बाप के नाम , प्रदेश देश नदी समुद्र सबके नाम कहाँ तक अनुकूल करें ? मुसलमान से पूछिए वह मुसलमान क्यों है ? क्या कोई और कौम या व्यक्ति अपने नाम पर इतनी मगजमारी करती है ? यह सारी कायनात, सृष्टि, आग, पानी, दिशाएँ और हवाएँ सब हवा हवाई है | कहीं तो पैर टिकाने की जगह बनाएँ !

* नागरिक संहिता कानून की बात है | एक किस्म के अपराध के लिए एक जैसी सजा सबके लिए | और इसकी मांग तो बहुत दिनों से उठ रही है | अब आप या राव साहेब पटा नहीं किस नागरिक संहिता की बात कर रहे हैं | वह कभी न भी रही हो तो क्या अब नहीं होनी चाहिये ?

* मेरा ख्याल [ ही है, दुराग्रह नहीं ] कि औरतों को बलात्कार से बचने के लिए स्वयं कोई तरीका, कोई रणनीति सोचनी चाहिए | पुरुष तो पुरुष ही हैं | मुझे नहीं लगता इसमें वे ज्यादा सहयोगी होंगे | ज्यादा से ज्यादा वे [ कुछ लोग ] यह कर सकते हैं कि वे बलात्कार नहीं करेंगे, छेड़खानी नहीं करेंगे, कुदृष्टि नहीं रखेंगे | लेकिन वे सबकी ज़िम्मेदारी तो नहीं ले सकते ? अब उस रणनीति में यह भी शामिल हो सकता है कि कभी वे लड़ें, कभी नज़र अंदाज़ करें, कभी सह जाएँ | लेकिन यह मानकर चलें कि यह एक पुरुष का सुझाव है |  

*    कुछ भी हो , आप महिलाओं के चक्कर में इतना क्यों रहते हैं, और वाद विवाद करने - बढ़ाने में  ? यह उनका क्षेत्र है , उन्हें तय करने दीजिये | ज्यादा ज़िम्मेदारियाँ न उठाइए |

* भाइयो थोडा हिंदुत्व को भी वैज्ञानिक होने का दावा पेश करने दिया जाय | युवाओं को मंदिर के कंगूरे पकड़ाने के बजाय उन्हें विज्ञानं अध्ययन की सुविधा दी जाय | क्या करेंगे ? कितने मंदिर चाहिए ? वह भी अयोध्या में , जो मंदिरों से अटा पटा पड़ा है ? अभी तो कुछ लोग जुगुप्सावश जा भी रहे हैं, भव्य मंदिर बनने पर वहां सिर्फ सैलानी जायेंगे | भक्त जनों के लिए तो हनुमान गढ़ी, दशरथ दरबार, सीता रसोई बहुत है |     
तो इसलिए ,सारे ही परिसर को " अयोध्या विज्ञान केंद्र " बनाया जाय | हम दानिश्वर ज़िम्मेदार हिन्दू ऐसी सलाह सरकार को और भाजपा सहित सभी पार्टियों को क्यों न दें , और इसे अमल में लाने का दबाव क्यों न डालें ? क्या सब कुछ साम्प्रदायिकों के ही कहने से चलेगा ? हम रेशनलिस्ट हिन्दुओं की कुछ भी नहीं चलेगी ? तो क्या हिन्दुस्तान भी पाकिस्तान की तरह आतंकियों की गिरफ्त में न आ जायगा ? इतिहास को हम क्या उत्तर देंगे यह भी तो सोचिये ? कि हम मौजूद थे फिर भी गड़बड़ हो गया | इस प्रस्ताव में तो किसी की धार्मिक भावना को चोट भी नहीं है | पत्थर तराशे रखे भी हुए हैं | मुसलमान भी अपना हक छोड़े | सारी ज़मीन समतल कर दी जाय | हाँ , एक विकल्प दिया जा सकता है - विज्ञानं केंद्र का नाम ' श्री सीता राम चन्द्र ' के नाम स्मृति स्वरुप समर्पित किया जा सकता है |

[साथ साथ ]
* रहते रहते ही 
प्यार पनपता है ,
रहते रहते ही 
घृणा उपजती है | 

[ कविता ]
* देखो देखो युधिष्ठिर ,
तुम्हारे पीछे 
एक कुत्ता चल रहा है |
धर्म है -
नाम उसका |
# #

" HYPOTHETICS" can be a good new subject / sreem for philosophy . 
I say that we can and we should theatrically  believe in a hypothetical God > After all our ancestors thought and brought forward the hypothesis of God having create the universe and lives on earth including humans . Now , why should we kill our imagination ? Just don't believe it true , but why not to use its concept in a positive manner for a cultural behavior of human beings ??
Yes , a hypothetical God can enhance religious science , and side by side it would not damage the human minds as a true God does today . I think so |

" A noted science fiction writer Robert J. Sawyer finds it amazing that 500 years after Copernicus, newspapers still publish astrology columns. Reality is what science fiction is all about . According to Sawyer, Science does hold all the answers - we just don't have all the science yet ."
Now , I take a clue from his experience . For us astrology columns would be interesting science fiction and the lack of ' science' would be supplemented by a hypothetical God , who has an ample presence here and does not agree to die or fade out . So let us evolve a theory of an imaginary and " HYPOTHETICAL" God . Right ? ?

So, we are all students of HYPOTHETICS ,. We are all hypotheticians ? We are not atheists ? We believe in a hypothetical God, never to come as true ?? 

* To Sandeep = ठीक है, देखता हूँ मित्र ! कहाँ रखा है , शायद ब्लॉग पर हो | पर यह तो तय है कि मैं सोचते विचरते इस निष्कर्ष पर दृढ़मत हूँ,[ जबकि मैं इसके लिए बड़ी निंदा और लताड़ खाता हूँ कि मैं बहुत जिद्दी हूँ ] कि भारत में दलित राज्य ही भारत का उत्थान कर सकता है , बल्कि अब तो इसका बचना, अस्तित्व में रहना ही इसी प्रकार संभव है | ढूँढता हूँ वह मूल प्रस्ताव | नहीं तो दुबारा लिखूंगा , बार बार लिखूँगा | इसीलिये मैंने आपसे एक बार पूछा था कि f b पर डाली गयी सामग्री का life span क्या है ?    

Pramod Kumar Srivastava
प्यार,इश्वर और भविष्य इन तीनों का कोई अस्तित्व नही है लेकिन पुरी दुनिया इनके पीछे पागल है. जहाँ तक विवाह का सवाल है प्राचीन मानव समाज में इसका कोई अस्तित्व ही नही था. हजारों साल तक मानव बीना विवाह के ही रहता था और रूसो के अनुसार आज से ज्यादा सुखी था. मार्क्स भी परिवार को शोषण का औज़ार मानता था. जहाँ तक सेक्स और प्यार का सवाल है सेक्स एक प्राकृतिक कार्य / आवश्यकता है जबकि प्यार कुछ होता ही नही.असली चीज है दिमाग और हार्मोंस जिनके योग से सेक्स का जन्म होता है. इसिलिया केवल किशोर ही प्यार में पागल होते हैं क्योंकि उस उम्र मै ही हार्मोंस सर्वाधिक सक्रिय होते हैं. प्यार केवल कहानियों और उपन्यासों और कविताओं में मिलता है. प्यार एक प्यारी सि कल्पना का नाम है जिसे आज तक सभी तलाश कर रहें हैं पर यह आज तक किसी को नही मिला है. स्वार्थों के लिए एक दुसरे कि जरोरत प्यार नही एक समझौता होता है. येहि कारण है कि विवाह होते ही प्यार खत्म हो जाता है. सेवन येअर इत्च [ Seven Year Itch ?] का नाम तो सुना ही होगा. इसका अस्तित्व ना होने के कारण ही सभी इसके तलाश में रहते हैं जैसे ईश्वर और भविष्य के तलाश में सभी मर रहे हैं.


  • Ugra Nath इस विचार को बहुत प्रमुखता से प्रसारित करने और आगे बढ़ाने की ज़रुरत है | क्योंकि इससे मानव जीवन की कई निराधार समस्याओं का निदान संभव है | और यदि यह बात हर शिक्षित के पास पहुँच जाय तो उसका तमाम समय प्रेम , ईश्वर और भविष्य के चक्कर में नष्ट होने से बच जाय | इसलिए यह विचारकों और वर्तमान समय के शिक्षकों की महती ज़िम्मेदारी भी बनती है | लेकिन हम लोगों की नकारात्मक सोच यह होती है कि हम विवाद बहुत करते हैं और सार्थक काम बहुत कम | ऐसा नहीं होना चाहिए | हमें अपने दडबों से बाहर विचारों की उपयोगिता और प्रासंगिकता भी देखनी चाहिए अपने वैयक्तिक अहंकार को दर किनार कर | जैसे मान लीजिये मैं अभी ' भविष्य ' के बारे में निश्चित नहीं हूँ | या मान लें कि प्यार कुछ होता भी है भले हार्मोन्स के चलते | तो भी हम क्या यह नहीं देख रहे हैं कि इनके लिए कितनी मारा मारी हो रही है ? तो चिन्तक को , मैं तो मानता हूँ कि शांति को कायम रखने और मानवता को बचाने के लिए कुछ झूठ भी बोलना स्वीकार करना चाहिए | इसी में मानव सभ्यता की भलाई है | संसार संपूर्णतः शुद्ध/ सब्जेक्टिव सत्य पर नहीं चलता | ज्यादा सच तो कभी कभी घातक भी हो जाता है | संभवतः इसीलिये अनुभावियों ने कहा - सत्यम ब्रूयात प्रियं ब्रूयात | मैं फिर दुहराता हूँ | सत्य के प्रति अत्यधिक आग्रह [ सत्याग्रह ] उचित नहीं है | इसलिए सत्य का अधिक प्रचार अनुचित है | वह झूठ उचित है जो मनुष्य की ज़िन्दगी बचाए | सत्य वहीँ तक संभव है जहाँ तक वह मनुष्य के लिए कल्याणकारी हो | हम इसीलिये इतना समय गवां कर नास्तिक हुए क्योंकि हमारे पास इसका माहौल नहीं था | हमें सब कुछ स्वयं करना पड़ा - आग हमें जलाता है जानने के लिए आग को छूना पड़ा , आग में कूदना पड़ा | पर आगे की पीढ़ियाँ तो बचें , हमारे अनुभव से लाभ उठाएँ ? अब यदि कोई कहे कि सत्य ही ईश्वर है , तो सत्यवादी क्षमा करें और हमें गालिया अता फरमाएँ | हम सत्य पर भी विश्वास नहीं करेंगे | तो , प्रमोद जी की तिगड़ी में क्या चौथा खम्भा और जोड़ना पड़ेगा कि सत्य का भी कोई अस्तित्व नहीं है ? हा हा हा !

    Pramod Kumar Srivastava
    सत्य और ईश्वर दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं . इसीलिए कोई कहता है की सत्य ही ईश्वर है तो कोई कहता है की ईश्वर ही सत्य है। इसलिए अगर हम मान लें की ईश्वर नहीं है तो फिर सत्य का अस्तित्व भी खत्म हो जाता है। फिर सत्य के अस्तित्व की बात अलग से कहने की जरूरत नहीं है। सुप्रसिद्ध दार्शनिक देकार्त मानता है की "सत्य स्पष्ट और भिन्न होता है" लेकिन दार्शनिक विको का मानना है की "सत्य वोही है जिसे आपका दिमाग मानता है . सत्य का कोई अलग से अस्तित्व नहीं है। हर दिमाग का सत्य एक दुसरे से अलग होता है। आपके लिए जो घोर असत्य है वोही दूसरे के लिए घोर सत्य हो सकता है।" एक आदमी बेटा पाने के लिए एक बच्चे की बलि चढ़ा देता है क्योंकि उसके लिए वोही सत्य है जबकि आपके लिए वोह घोर अपराध है। इसीलिए रूसो सामान्य इच्छा की बात करता है। कानून बनाने के लिए जो बहुमत कहे वोही सत्य है लेकिन अल्पमत को भी अपनी बात कहने का प्राकृतिक अधिकार है क्योंकि वोह भी सत्य हो सकता है। येही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मूल विचार है जो किसी भी कानून को संसोधित करने का मार्ग प्रशस्त करता है।


    Limit the " RICHES" and welcome the " EQUALITY " .


    * यदि औरतें सर से पाँव तक कपडे से ढकी रहती हैं तो इसमें अमानवीय जैसा क्या है ? और यदि लड़कियाँ ज्यादा खुले बदन रहती हैं तो इसमें अश्लील क्या है ? क्या तुम मानव शरीर को नहीं जानते ?


    यही तो वितंडावाद है जिसमे आप अग्रणी हैं | इसीलिए मुझे याद नहीं कि कभी मैंने आपके पोस्ट पर टिप्पणी की हो | यह तो मेरे लिखे पर आपने कमेन्ट किया तो लिख रहा हूँ | आपकी सहमति नहीं है तो मत कीजिये समर्थन | यही दिक्कत आप के साथ है कि आप विद्वान तो निश्चित हैं और प्रशंसा योग्य, लेकिन - - - cut -  | अब यही देखिये | इतनी बड़ी समस्या है और आपको  हा हा हा  
    हँसी सूझ रही है | इसी बल बूते पर आप देश चलाएँगे | मैंने तो केवल गुंजाइश छोडी है समस्या को हल की परिणति तक पहुँचाने के लिए, पसंद मुझे भी नहीं है | और ऐसा क्यों नहीं हो सकता ? क्या राम वगैरह पुष्पक विमान से अयोध्या वापस नहीं लौटे थे ? बचकाना प्रत्युत्तर अभी आ जायगा - सब झूठ है | मैं भी सच नहीं मानता | लेकिन मनुष्य की कल्पना शक्ति को मानता हूँ | क्या Science Fiction नहीं होते ? ऐसी कथाएँ और फ़िल्में नहीं देखते आप ? आप भली भाँति पढ़े / जानते हैं कि तमाम वैज्ञानिक आविष्कारों के पहले उनके गल्प आ चुके थे |  [ to Ashok Dusadh]
    साध्य का दुस्साध्य से क्या लेना देना ?
    थोडा पानी ठहरे तो चेहरे दिखाई दें |

    * यह नास्तिक ग्रुप के साथ ' वास्तविक ' यथार्थपरक समूह / मंच भी है |

    * मै कहता तो रहा हूँ कि यदि हिन्दू की जायज़ / सही बातों को भी अनुचित ठहराया जायगा , तो सही हिन्दू भी सांप्रदायिक हो जायगा |

    * कुछ नामवर सिंह जनों पर मुक़दमा चल जायगा , कुछ आशीष नंदी जेल चले जायेंगे कानून के बल पर | लेकिन अन्य कितनो कि जुबान पर ताला लगाओगे ? वे " कुछ तो लोग कहेंगे " ?  क्या कर लोगे ? और नंदी भी विचार जगत के सेनानी और शहीद न बना दिए जायं तो ताज्जुब नहीं !

    * तुम कहाँ छुपे भगवन हो ? 
    तुम छिपे क्षीर सागर में , या गोपिन की गागर में,
    कहाँ ढूँढूँ रमा रमन हो ?

    * पुनः प्रशंसनीय | इसी विनम्रता के सदगुण का अब नितांत अभाव होता जा रहा है, और sophism , hostility , या polemic 'ता' का कारण बनता | मुझमे तो ज्ञान कुछ भी नहीं है | बस बच्चों की तरह सर्जन के साथ खेलता रहता हूँ - आनंदविभोर |

    *  ठगा जाना तो 
    हमारी नियति है 
    नई क्या बात ?

    * जिस व्यवस्था में निजी वकील भाड़े पर रखना पड़े , उसमे सरकार किसी पीड़ित / नागरिक को संवैधानिक न्याय दिला सके यह कहं संभव है ?

    * कविताएँ लिखी जा रही हैं , बहुत लिखी जा रही है , अच्छी लिखी जा रही हैं | कविताएँ , लेकिन जी नहीं जा रही हैं | मेरा ख्याल है - कविता को कुछ जी लिया जाना चाहिए | भले लिखी कम जाएँ , या न लिखी जाएँ  |


    बिल्कुल सही कह रही हैं आप रति जी | हिंदी पट्टी में टाँग खिंचाई ज्यादा है | मैं सिर्फ यह इंगित करना चाहता था  , वैसे यह अनुमान मेरा निजी है , कि यहाँ मैं उस गुरुता का अभाव भी परिलक्षित कर रहा हूँ जो शीर्ष साहित्यकार से अपेक्षित है | अन्यथा न लिया जाय तो दृष्टव्य है लिखना  आने से पहले उनमें दंभ और अभिमान अधिकाधिक आ जाता है , जिससे इनकी सम्मान्यता में कमी आ जाती है | और यदि राजनेता सम्मान देने पहुँचते हैं तो उसके कारण भी राजनीतिक होते हैं | 
    क्या कहा जाय ? 

    Meghna Mathur
    मुझे समझ नहीं आता कि दिलीप मंडल, समर अनार्य टाइप के लोग हिंदू धर्म के पीछे क्यों पड़े रहतेे हैं। उन्हें हिंदू धर्म या द्विज निंदा का अधिकार किसने दे दिया। जब वे खुद को हिंदू नहीं मानते तो उनकी यह हरकत उन्हें किसी अन्य धर्मावलंबी का मन दुखाती है। यह संविधान की मूल भावना के विपरीत है। और अगर इतने ही वे साहसी हैं तो इस्लाम, ईसाई और अन्य धर्मों के बारे में कुछ कहने की हिम्मत करें।

    * मैं तो सिर्फ यह कहता हूँ कि खूब आलोचना करो हिन्दू धर्म की, इसी से यह सुधरेगी | लेकिन हर चीज का  समय होता है | कुछ राजनीति भी तो समझो | धर्म केवल अध्यात्म नहीं , वे पूरी राजनीति हो गए हैं | इसलिए हिन्दू / दलित / राज्य लाओ , फिर तुर्की के कमाल पाशा की तरह हिन्दू को आधुनिक और रेशनल बनाओ | अभी तो अन्य मजहबों के राजनीतिक साजिशें और निहितार्थ को भी समझो |

    * यदि आप मात्र कुम्भ मेला और शाही स्नान को ही हिन्दू धर्म समझते हैं , तो मुझे आपसे कुछ नहीं कहना |
    * यदि आप कुम्भ मेला और शाही स्नान को धर्म से जोड़कर देखते हैं , तो मुझे आपसे कुछ नहीं कहना |

    Virendra Nath Bhatt आप कुछ ना कहें ठीक है लेकिन धर्म की परिभाषा तो बता दें।
    ज्यादा तो आप लोग ज्यादा जानते हैं लेकिन मेरे लेखे वह कश्मीर के पेश ए ईमाम और दारुल उलूम का फतवा नहीं है | वह हिन्दू मुसलमान भी नहीं है ऐसा आप विद्वतजनों से ही जाना | लगता है बहुत गहरे में है वह, और मज़ा यह कि उसमे उतरना बहुत आसान भी है | सहज मन , सरल बुद्धि -  जैसी होती जाए | और हाँ , वह बहस-विवाद का मुद्दा तो बिल्कुल नहीं है |

    बहू नहाने जा रही है | तब तक एक वर्षीय पोते को संभालना मेरा धर्म है | निजी मामला ?

    * इस बात का तो मैं ही गवाह हूँ कि अशोक , दुसाध में अहंकार नहीं है , और जो कुछ - टंकार , झंकार आदि कितना भी हो | अहंकार तो मुझमे भी नहीं है , और हो भी तो किस बात का ? फिर भी बड़ी मेहनत से मिटाया है मैंने इसे | लेकिन मुझमे गुस्सा बहुत है | सोचता हूँ इस पर भी विजय पाता , लेकिन पाता हूँ कि यह तो मेरी अमानत, मेरी पूँजी, उपलब्धि या कहना होगा विशिष्टता बनती जा रही है | इसलिए बजाय इस पर काबू पाने के असफल प्रयास करने के मैं ऐसे मौकों पर चुप कर जाता हूँ | 

रविवार, 3 फ़रवरी 2013

धर्म विहीन होने से

* धर्म विहीन होने से , चलिए मान लेते हैं , हम अनैतिक हो जायेंगे | लेकिन यह भी तो देखें कि आज ही नैतिकता कितने पानी में है ? फिर इतने सारे भगवानों और धर्मो का अतिरिक्त बोझ क्यों  ढोयें ? सीधे सीधे नैतिक या अनैतिक ही न हो लें ?
* भला यह भगवान् क्या होता है ?

* मैं  हमेशा सच ही नहीं बोलता | कभी कभी, नही ज़्यादातर तो मैं झूठ ही बोलता हूँ | जैसे कहता हूँ - मैं प्यार करता हूँ , हे प्रियतम ! प्रिय मित्र के संबोधन से पत्र प्रारंभ करता हूँ | और यह भी तो कहता हूँ - हे ईश्वर ! प्रभु जी तेरा सहारा ! भगवान् आपका भला करे | जब कि यह सब झूठ है - न प्रेम जैसी कोई वास्तु है, न ईश्वर का कोई अस्तित्व | मैं सत्य कहाँ बोलता हूँ ?

प्रगति की कहानी


प्रगति की कोई भी कहानी जनसँख्या की चर्चा के बिना पूरी नहीं हो सकती | इसके नियमन के बिना कोई योजना सफल नहीं हो सकती | लेकिन विडम्बना है कि राजनीति, आधुनिक राज्य तंत्र ही इसमें बाधक है | अद्भुत बात है कि लोकतान्त्रिक प्रणाली इस दोष में अभिवृद्धि करती है | क्योंकि यह संख्या पर आधारित है, जनमत की बहुलता पर | " जिसकी जितनी संख्या भारी " इस समस्या को जटिल बनाती है | इसलिए जिस भी समूह को राज्य पर लोकतान्त्रिक ढंग से कब्ज़ा करना होता है, वह अपनी संख्या बढ़ाना अपना प्रथम कार्यक्रम बनाता है | आश्चर्य नहीं कि मुसलमानों पर ज्यादा बच्चे पैदा करने का आरोप इस कारण सही ही हो | और इसी लक्ष्य को ध्यान में रखकर संघी सुदर्शन प्रत्येक हिन्दू को नौ बच्चे धरती पर भार बढ़ाने के लिए उतारने का शुभ परामर्श देते थे | जनतंत्र के हिसाब से इसमें प्रथमदृष्टया तो कोई दोष नहीं दिखता लेकिन यह कार्यक्रम देश और संसार की जनसँख्या तो बढ़ाता ही है, और इस प्रकार अंतरराष्ट्रीय समस्या आसमान चढ़ती है | गज़ब की शोकजनक बात यह कि तमाम सम्मानित और अपमानित किये जाने वाले विचारक इस का कोई ठोस उपाय बताये बिना ही सामाजिक विज्ञानी बने हुए हैं / बन जाते हैं |
लेकिन मैं , समाज का एक अदना सिपाही इसका एक समाधान बताता हूँ | वह यह कि समूहों में परिवार नियोजन को प्रोत्साहित करने के लिए उनके सदस्यों के वोट की कीमत आनुपातिक ढंग से points में बढ़ा दी जाय | जैसे राष्ट्रपति चुनाव में सांसदों - विधायकों के वोटों के points होते हैं | उदाहरणार्थ मान लिया जाय कि भारत की कुल जनसँख्या एक अरब है | इसमें हिन्दू ६० करोड़ , मुस्लिम २० करोड़ ,सिख ईसाई आदि अन्य जातियाँ १९ करोड़ और सेक्युलर /नास्तिक/ ह्युमनिस्ट [ हुमी] बचे एक करोड़ | तो हिदुओं के ६ वोटों की कीमत एक वोट , मुस्लिमों के एक वोट को आधा वोट , अन्य जातियों के १.९ वोट एक point बनायेंगे | जबकि सेक्युलरों के एक वोट का मूल्य १० पॉइंट हो जायगा | [लागू करते समय इसकी गणित ठीक की जा सकती है ] | यानी प्रत्येक समुदाय के हाथ में १० - १० करोड़ के कीमती वोट होंगे , और अपने वोट की ताक़त से अपनी पसंद की सरकार बना सकेंगें | किसी को इस बात की ग्लानि तो न होगी कि हाय हम तो छोटी सी संख्या में हैं , क्या सरकार बनायें और हमारी क्या कीमत ? सरकार हमारी क्यों सुने जब हम कोई वोट बैंक ही नहीं हैं ? इससे गन्दी वोट बैंक की राजनीति पर रोक लगेगी | राजनीति साफ़ और स्वच्छ होगी | अल्पसंख्यक - बहुसंख्यक का रोग समाप्त होगा | और सबसे बड़ी बात इससे अपने एक वोट के पॉइंट्स बढ़ जाने की व्यवस्था से लोग अपने परिवार कम से कम बढ़ाएंगे और देश की आर्थिक प्रगतिवादी योजनायें सफलता की ओर कदम बढ़ा सकेंगीं | सोचिये सभी जन आगे सोचिये | कोई मेरे अकेले के जिम्मे तो नहीं है यह देश ? और मैं एकला सोचूँ भी तो कितना सोचूँ ?    A

Dawkins and Stephen Hawking


Fascinating Conversation =
In June 2010 two British geniuses met and talked about science . The two men were Richard Dawkins and Stephen Hawking,. During the fascinating conversation , Dawkins asked Hawking " what really happened before the Bang ?" Hawking gave the standard answer - there is no 'before' because time is a part of the universe, as predicted by general relativity . Hawking had a tougher for Dawkins :"Why are you obsessed with God ?" Because religion distracts from the pursuit of science , replied the evolutionary biologist .

Facebook 01/ 02 / 2013

* Start your being as a Humanist by not showing any signs of religiosity except through your humane behavior . Avoid prayers in public, visiting religious places and shrines. Do not apply religious marks of identification - chandan teeka roli - choti kanthee maala , stones in rings etc. Whatever you believe, let it remain in your hearts. it is also useful in your spiritual journey too as well .      

* समझ में नहीं आ रहा है कि मुसलमानों की हठधर्मिता और कट्टरता नहीं तो कट्टरता की प्रदर्शन प्रियता पर क्या किया जाय ? आये दिन जब तब बखेड़ा खड़ा किये रहते हैं | आजकल विश्वरूपम और सलमान रूश्दी हैं | इन्होने अपनी साख और इज्ज़त मिट्टी में मिलाई हुई है | फिर कहते हैं दुनिया को इस्लामो फोबिया हो गया है | मुझे तो लगता है ये जिस ईमान की बात करते हैं, इन्हें अल्लाह पर भरोसा कम से कम है, या है ही नहीं | तभी तो ये उसे, उसकी किताब आदि बचाने सड़कों पर मारे फिर रहे हैं ? अरे कुछ तो उसके ऊपर छोडो भाई या सब कुछ तुम्ही कर लोगे ? फिर ईश्वर क्या करेगा ? कुछ उग्र आन्दोलन कुत्सित दिमाग में आते हैं | जैसे किसी मुसलमान की लिखी कोई किताब न पढ़ी जाय, क्योंकि यहाँ रूश्दी या तसलीमा को लिखने, आने जाने की पाबंदी है | सरकार एक किनारे, समाज की अपनी भी ताक़त होती है, और उसे कोई चुनौती नहीं दे सकता क्योंकि वह सूक्ष्म रूप से कार्य करती है | हम किसकी कौन सी किताब पढ़ें, क्या न पढ़ें, यह तो हमारे अधिकार में है | इन्हें भारत में वोट न दिया जाय यह पुराना कार्यक्रम है | किये की सजा आखिरत में क्यों , अभी इसी दुनिया में इसी समय क्यों नहीं ? फिर हमें अपने प्रत्येक कृत्य को तार्किक, न्यायसंगत, अपने अनुकूल तो बनाना ही होता है ?            

* वर्मा जी कमीशन ने बिना मुझसे चेक कराये अपनी रिपोर्ट दे ही दी वरना मैं उन्हें दो एक सुझाव और देने को कहता | लेकिन उनकी भी क्या गलती ? मुझे विचार भी तो अध्यक्षीय भाषण के बाद ही आते हैं | एक तो विचार यह था कि बलात्कारियों पर देश द्रोह का मुक़दमा चलाया जाय | क्योंकि इससे और तो जो नुकसान होता ही है, इससे राष्ट्र की छवि बहुत बिगडती है | देश शर्मसार होता है | वह धारा कौन सी है मुझे याद नहीं, जो विनायक सेन पर लगी थी - संदीप जी बता सकते हैं | लेकिन मेरे ख्याल से वह उचित सजा होती | दूसरा विचार यह था कि पीडिता को पीडक की संपत्ति से फ़ौरन हिस्सा दिला दिया जाय | जैसे यह मान कर चला जाय कि उसके साथ ज़बरदस्ती सुहागरात मनाई गयी | तो ज़मीन जायदाद में हिस्सा दो | वह तुम्हारे साथ अब नहीं रहेगी / या चाहे तो रहे | तो पीडिता को क्षणिक पत्नी का अधिकार क्यों न दिला दिया जाय ? दानिशवरों को याद होगा कैसे मुल्ला जी ने एक पतोहू को बेटे की माँ बता दिया था, क्योंकि ससुर ने उसके साथ सम्बन्ध बना लिया था | हम दरअसल कुछ सीखना ही नहीं चाहते वरना न्याय के तमाम सूत्र तो हमारे घर में ही बिखरे पड़े हैं |   

* हम दृढ़मत 'नास्तिक जन' समूह हैं | हम मानववादी हैं, किसी अन्य लोक के ईश्वर के बगैर | हम इसी दुनिया में इंसानी ज़िन्दगी के कायल हैं | स्वर्ग नर्क, भगवानों की अनुकम्पा, की हमें दरकार नहीं | ईश्वर की नहीं, हमें मनुष्यों की ख़ुशी चाहिए | हमारे चिंतन और कर्म में मनुष्य है, और मनुष्य के इर्द गिर्द का वातावरण | यह प्रकृति और यह सृष्टि और इसकी जिजीविषा | पदार्थ और चेतना | इसलिए हमें ईश्वर से कोई परहेज़ नहीं जब तक वह मनुष्य की निर्मिति है और उसकी कल्पना | लेकिन इसके आगे नहीं | उसे हम अपनी तार्किकता और वैज्ञानिकता में बाधक नहीं होने देते | इसी प्रकार हमारी किताबें हमारे पूर्वजों की कविताएँ मात्र हैं, आदेश नहीं | भारत के सन्दर्भ में धर्म भी मानवता के प्रति हमारी सत्यनिष्ठा, कर्तव्यपरायणता है | यह हमारी आध्यात्मिक प्रेरणा है, हमारा संगठन नहीं | हम व्यक्ति की आत्मा के अभ्युत्थान के आकांक्षी हैं |          

* झूठ से मुझे 
चिढ़ तो है ज़रूर 
पर क्या करूँ ?

* दलित नहीं 
दलितावस्था में तो 
ज़रूर हूँ मैं |

* दुःख पड़ा तो 
झेलना ही पड़ेगा 
चाहो न चाहो |

* पवित्र गाय 
इस्लाम धर्म है न 
पवित्र गाय !

* हिन्दू हाफ़िज़ =
इस्लाम मज़हब में उनकी किताब कुरान मजीद की हिफाज़त का पक्का बंदोबस्त है | वहाँ हाफ़िज़ साहेबान होते हैं जिन्हें पूरी किताब ज़ुबानी याद , कंठस्थ होती है | व्यवस्था यह है कि किसी भी वजह से यदि कुरआन की सारी प्रतियाँ गुम हो जाएँ, और दुनिया में एक भी हाफ़िज़ जिंदा हो तो वह उसे पुनः लिख देगा |
हिन्दू धर्म में न तो ऐसी कोई किताब है, न उसकी सुरक्षा का ऐसा कोई इंतजाम | लेकिन भारतीय परिवेश को देखा जाय तो कहा जा सकता है कि संसार में जब तक एक भी यादव, या अहीर कह लीजिये, हिन्दू धर्म बचा रहेगा, उसका रूप - स्वरुप जो भी हो | शायद यदा यदा हि धर्मस्य - -  का प्रभाव हो !    

* हाँ , यह बात भी सही है | नैतिकता वादी लोग सही दिशा में भौतिकता के बारे में कुछ सोचते हि नहीं | वाकई १८ से २१ के बीच में वह क्या करेगा ? ब्रह्मचर्य का निर्वाह तो करेगा नहीं | फिर तो जो विकल्प है, वह स्वास्थ्य के लिए शुभ नहीं | इसीलिये मैं तो बहुत प्रारम्भ से बाल विवाह का हिमायती हूँ, जिसका बड़ा विरोध होता है आधुनिकता द्वारा | हाँ गौना १६- १८ कि आयु पर आये | शहरी लोग तो विवाह और गौन में हि अंतर नहीं जानते | और आधुनिकता के चक्कर में बुढ़ौती में विवाह को प्रश्रय देते हैं , जिसका कुफल समाज को भुगतना पड़ता है |  

* किसी को भी फँसाने के लिए लोकपाल के अतिरिक्त तमाम कानून पहले से ह़ी हैं | और तमाम लोग उसी के तहत दण्डित भी किये जा चुके हैं | लेकिन जब हम लोग [ आन्दोलनकारी ] सरकार से नाटक करवाना ह़ी चाहते हैं, तो वह कर भी रही है |  

* "साबार ऊपर मानुष सत्य, ताहार ऊपर नाइ"
= नहि मानुषेत श्रेष्ठतरं हि किंचित | ? 

* भला यह प्यार व्यार क्या होता है भाइयो ? क्या यौन सुख से फर्क कुछ होता है? कहीं ऐसा तो नहीं की दोनों एक ही हों और हम इनमे द्वैत पैदा करके समस्या को जटिल बना रहे हों ? मैं स्थिति स्पष्ट कर दूँ | मैं भी ५० साल तक प्यार में घायल रहा, पर अभी इल्हाम हुआ कि यार यह तो कुछ था ही नहीं, मैंने बेकार जीवन को नर्क बनाया | उधर प्रमोद K S जी [ Lucknow School ] कह ही रहे हैं कि ईश्वर भी नहीं होता | उसके पीछे तो पूरी दुनिया पागल है - अतः बातें ठीक लग रही हैं | ये हमारे मन के भ्रम हैं मात्र | मैं तो मित्रो अब लाटरी पद्धति से विवाह के पक्ष में जा रहा हूँ | और यदि मैं इसे जन गण मन में डाल / स्थापित कर पाया तो मानवता को अवश्य थोडा सुखी कर पाऊँगा | इधर मैं नास्तिक मानव वादी भी तो हुआ हूँ ? सचमुच सौ में से निन्यानबे रिश्तों को नकारना [ Reject ] कितना CRUEL काम है ? विवाह का बंधन भी कैसा ? अरे उन्हें जिस मिलन की शारीरिक ज़रुरत है, उसके लिए समय से उनके जोड़े बना देना है | इतने भर के लिए कितने झमेला है ? कई कई लाख अनावश्यक व्यय और राष्ट्रीय श्रम - समय की बर्बादी ! अब तो मैं किसी शादी समारोह में नहीं जाता | फ़िज़ूल का काम | यह अलग बात है की मुझे हर उत्सव अब पीड़ित मानवता विरोधी लगने लगे हैं, नैतिकता की खिल्ली उड़ाते |         

* रुश्दी ने लिखा ही तो है ; नंदी ने कहा ही तो है ? उनके लिए इतनी बड़ी सजा की माँग ? इन्ही लोगों को हिंसक - नक्सलवादियों के खिलाफ हर कार्यवाही राजकीय हिंसा लगती है | विनायक सेन के पक्ष में ये तमाम मोमबत्तियाँ जलाते हैं | वह समाज कैसा होगा जिसमे अपने मन की बात कोई नहीं कह पाए भले वह वक्ती तौर पर समय को कितना भी अप्रिय हो | अँधेरा होने वाला है , अंधेरगर्दी चलने वाली है |  
हाँ जब कानून बना है तो उसका सदुरुपयोग होना ही चाहिए | वर्ना अकादमीय मामलों में सजा यह होती है कि वक्ता अपनी साख और विश्वसनीयता खोता है | फेसबुक पर ही कितने अनाप शनाप बकने वाले लताड़े या अन्फ्रेंड किये जाते हैं | फिर भी हमें क्या ऐतराज़, कानून अपना काम करे | पर ध्यान रहे, फिर हर मामले में उसे "काम" करने दिया जाय | किन्ही मामलों में उसे अपने हित में न मोड़ा जाय | और हाँ भाई, बताते हैं कि कभी ब्रूनो वगैरह पर भी 'धर्म' ने "धार्मिक" कार्यवाही की थी | अब राज्य सबल हो गया है तो उसे भी सख्त कार्यवाही करनी ही चाहिए | तथापि एक चाहत तो थी कि कोई संज्ञ [sane] दलित संगठन यह बयान देता कि भ्रष्ट समाज और व्यवस्था में सभी भ्रष्ट है और दलित इस व्यवस्था और समाज से बाहर नहीं हैं | 

शायरी क्या है


* शायरी क्या है 
शब्दों की कारीगरी 
वाक्य निर्माण |

* छूटती नहीं 
पुरानी आदत है 
सभासदी की |

* कहा जा पाता
कहाँ तो सारा ज्ञान 
अज्ञानियों से !

* करता रहूँ 
अनिवार्य चिंतन 
यही अभीष्ट |


* सुख न सही 
दुःख तो है शाश्वत 
शाश्वत हूँ मैं |

* नदी नहीं है 
ज़िन्दगी सागर है 
एक प्यास तो |

* देश में व्याप्त 
अद्भुत अव्यवस्था 
अराजकता |

* मैं जानता हूँ 
कैसे बचायी जाये 
टोपी अपनी |

* करते हम 
फ़िज़ूल की बहस 
बेमतलब !

* हमारा घर 
रहने लायक है 
देखने नहीं |

* सिलसिला तो 
शुरू होने वाला है 
पुरस्कारों का |

* जो भी होता है 
होता चल रहा है 
उसे होने दो |

* कुछ भी नहीं 
नर - नारी समस्या 
सोच का फेर | 

* मनोरंजन 
विश्वविद्यालयों का   
आकर्षण है |

* महत्त्वपूर्ण ,
मशहूर तो नहीं 
ज़रूर हम |

* गन्दगी कोई 
घृणित वस्तु नहीं 
शुद्धि सोपान |

* हो गई बात 
कितनी बात करें 
प्यार तो एक !

* उनसे भेंट 
वेटिंग पर रखो 
कन्फर्म नहीं 
[ अभी मुल्तवी ]

* इसीलिये तो 
होता नहीं मैं ख्यात 
न हूँ कुख्यात |

* नहीं चलेगी 
सरकारी योजना 
वह कोई हो |

* नहीं चलेगी 
यहाँ कोई योजना 
सरकार की |

* मुझे चाहिए 
कोई अच्छा बहाना 
जेल जाने का |

* आखिर चूल्हा 
है तो सेपरेटाना  
कैसा दोस्ताना ?

* लकीरों को तो 
मिटना ही चाहिए 
बनें तो नई !

* चिर शांति हो 
लेकिन पहले तो 
कुछ शांति हो !


* ख्याली पुलाव 

अत्यंत स्वादिष्ट है 

इसे जेंइए | 

* न्याय  व्यवस्था    
बड़े आराम से है 
चल रही है |

Nagrik Blog = 05 / 02 / 2013 to 07 / 02 / 2013








‎[ हमारी मनुष्यता ]
* हमारी मनुष्यता में यदि कोई खोट या कमी हो तो हमें बताएँ | हम सुधार लेंगे , पाश्चाताप कर लेंगे , शर्मिंदा हो लेंगे , माफी माँग लेंगे | आप बताएं तो !

* बड़ी बड़ी कालोनी के बड़े बड़े स्कूलों में पढ़ने वाले छोटे छोटे बच्चों को जब उनके माता पिता / मम्मी पापा या डैड -मोंम बड़ी बड़ी बसों में बैठने जाते हैं तो बस चलने तक और बहुत दूर आगे चले जाने तक वे हाथ उठा कर हिलाते रहते हैं | मेरा ख्याल [ही ] है की ऐसा उन्हें नहीं करना चाहिए , एक दो बार बॉय कहकर वापस लौट आना चाहिए | ज्यादा हथविदा करने से बच्चों के आत्म विश्वास में कमी आने का अंदेशा है | 

* प्रगति की कोई भी कहानी जनसँख्या की चर्चा के बिना पूरी नहीं हो सकती | इसके नियमन के बिना कोई योजना सफल नहीं हो सकती | लेकिन विडम्बना है कि राजनीति, आधुनिक राज्य तंत्र ही इसमें बाधक है | अद्भुत बात है कि लोकतान्त्रिक प्रणाली इस दोष में अभिवृद्धि करती है | क्योंकि यह संख्या पर आधारित है, जनमत की बहुलता पर | " जिसकी जितनी संख्या भारी " इस समस्या को जटिल बनाती है | इसलिए जिस भी समूह को राज्य पर लोकतान्त्रिक ढंग से कब्ज़ा करना होता है, वह अपनी संख्या बढ़ाना अपना प्रथम कार्यक्रम बनाता है | आश्चर्य नहीं कि मुसलमानों पर ज्यादा बच्चे पैदा करने का आरोप इस कारण सही ही हो | और इसी लक्ष्य को ध्यान में रखकर संघी सुदर्शन प्रत्येक हिन्दू को नौ बच्चे धरती पर भार बढ़ाने के लिए उतारने का शुभ परामर्श देते थे | जनतंत्र के हिसाब से इसमें प्रथमदृष्टया तो कोई दोष नहीं दिखता लेकिन यह कार्यक्रम देश और संसार की जनसँख्या तो बढ़ाता ही है, और इस प्रकार अंतरराष्ट्रीय समस्या आसमान चढ़ती है | गज़ब की शोकजनक बात यह कि तमाम सम्मानित और अपमानित किये जाने वाले विचारक इस का कोई ठोस उपाय बताये बिना ही सामाजिक विज्ञानी बने हुए हैं / बन जाते हैं |
लेकिन मैं , समाज का एक अदना सिपाही इसका एक समाधान बताता हूँ | वह यह कि समूहों में परिवार नियोजन को प्रोत्साहित करने के लिए उनके सदस्यों के वोट की कीमत आनुपातिक ढंग से points में बढ़ा दी जाय | जैसे राष्ट्रपति चुनाव में सांसदों - विधायकों के वोटों के points होते हैं | उदाहरणार्थ मान लिया जाय कि भारत की कुल जनसँख्या एक अरब है | इसमें हिन्दू ६० करोड़ , मुस्लिम २० करोड़ ,सिख ईसाई आदि अन्य जातियाँ १९ करोड़ और सेक्युलर /नास्तिक/ ह्युमनिस्ट [ हुमी] बचे एक करोड़ | तो हिदुओं के ६ वोटों की कीमत एक वोट , मुस्लिमों के एक वोट को आधा वोट , अन्य जातियों के १.९ वोट एक point बनायेंगे | जबकि सेक्युलरों के एक वोट का मूल्य १० पॉइंट हो जायगा | [लागू करते समय इसकी गणित ठीक की जा सकती है ] | यानी प्रत्येक समुदाय के हाथ में १० - १० करोड़ के कीमती वोट होंगे , और अपने वोट की ताक़त से अपनी पसंद की सरकार बना सकेंगें | किसी को इस बात की ग्लानि तो न होगी कि हाय हम तो छोटी सी संख्या में हैं , क्या सरकार बनायें और हमारी क्या कीमत ? सरकार हमारी क्यों सुने जब हम कोई वोट बैंक ही नहीं हैं ? इससे गन्दी वोट बैंक की राजनीति पर रोक लगेगी | राजनीति साफ़ और स्वच्छ होगी | अल्पसंख्यक - बहुसंख्यक का रोग समाप्त होगा | और सबसे बड़ी बात इससे अपने एक वोट के पॉइंट्स बढ़ जाने की व्यवस्था से लोग अपने परिवार कम से कम बढ़ाएंगे और देश की आर्थिक प्रगतिवादी योजनायें सफलता की ओर कदम बढ़ा सकेंगीं | सोचिये सभी जन आगे सोचिये | कोई मेरे अकेले के जिम्मे तो नहीं है यह देश ? और मैं एकला सोचूँ भी तो कितना सोचूँ ?

[ गाना ]
* हाँ , गाना तो होगा ही | 

सृष्टि शास्त्र  के शाश्वत धुन पर 
निशदिन - सबदिन , 
हाँ , गाना तो होगा ही |

इस दुनिया के रंग महल से 
एक न एक दिन 
हाँ , जाना तो होगा ही |

[ शेर ]
* एक मुश्किल सवाल है - तू है ?

एक मन का भुलाव है - तू है ,
एक ख्याली पुलाव है - तू है |

[ जीवन दर्शन ]
Baldeo Pandey
‎" हम आसानी से अवांछित या औसत आदमी को भी स्वीकार कर लेते हैं, तर्क होता है कि और कोई विकल्प नहीं है. असलियत में हम या तो अच्छे विकल्प की तलाश करने का जहमत उठाना ही नहीं चाहते, क्योंकि इस बात में हमारी कोई गहरी दिलचस्पी ही नहीं होती या हममें एक वाजिब विकल्प को देखने की इच्छाशक्ति, नज़रिया और काबिलियत ही नहीं होती और न उसे स्वीकार करने का साहस - आमीन ! "
*[ ugra nath] यह कमजोरी मेरी भी है जिसे मैंने अपनी ताक़त का रूप दिया हुआ है | दार्शनिक बहाना बना कर लिखूँ - तो एक तो " विकल्पहीनता एक वरदान है (ओशो) " | दूसरे, इसके द्वारा मैं औसत आदमी को उसका देय समुचित सम्मान दे पाता हूँ | मैंने पूरा जीवन ही " साधारण मनुष्य को प्रतिष्ठित " करने और साधारणता को जीने में लगा दिया |  मेरा आत्म उदघोष ही था = " विशिष्टता के विरुद्ध मेरी विशिष्ट लड़ाई है " | साधारण से साधारण मनुष्य जो हो सकता है - वह मैं था | छोटा सा छोटा आदमी जो कर सकता है / करके दिखा सकता है , वह मैंने किया / किया करता हूँ | वह भी शान से, हीन भावना रहित | 
और अवांछित ? जनतांत्रिक संस्कृति में मैं विरोधियों के बीच रहने का, कम से कम सैद्धांतिक रूप से तो , कायल तो हूँ ही [ आँगन कुटी छवाय ] | मेरी विपरीतांगी पत्नी, मेरे बाल बच्चे -परिवार-नातेदार , पडोसी-अफसर मातहत चाहे जैसे मिले गुज़ारा किया | अलबत्ता, यह आसान नहीं, दुश्वार कार्य था |  
तथापि बलदेव जी की स्थापना बलिष्ठ है, और पूरी गुंजाइश है कि मेरे गढ़े हुए छद्म की तुलना में उनकी बात में सच्चाई ज्यादा हो | इसलिए उसे एक मील का पत्थर के रूप में लिया जाना चाहिए |अरे हाँ ! आ हा , मज़े की बात मस्तिष्क में आई ! कहीं ऐसा तो नहीं कि मनुष्य एक आवरण - एक केंचुल - एक भुलावे में जीने का आनंद लेना चाहता है ? [ ले चल मुझे भुलावा देकर मेरे नाविक धीरे धीरे - (महादेवी) ] |
इस बात पर एक किस्सा याद आया - यहीं फेसबुक पर ही कहीं पढ़ा था | एक व्यक्ति फूलों के विशाल बाग़ में गया | फूल अच्छे थे | पर यह सोच कर वह उन्हें छोड़ आगे बढ़ता गया कि आगे और सुंदर फूल होंगे | फिर उसे लगा कि वही फूल अच्छा था जिसे उसने पीछे देखा था | वह लौट आया, पर वह फूल उसे नहीं मिला | तब तक उसे किसी ने चुन लिया होता है |


* आजकल कोलकाता में हूँ और दिल्ली का वातावरण गर्म है , तो पिछले वर्ष यहाँ घटी एक घटना की याद आई जो प्रतिगामी कही जा सकती है | एक रिक्शा वाला कुछ द्रुत गति में था कि एक माँ बेटी सामने आ गयीं | उन्हें बचाने के लिए उसने हाथ से किनारे ढकेला तो वे उसे पीटने लगीं | आरोप वही छेड़खानी का था , जो कि सच नहीं था | लेकिन पता नहीं कैसे लोग राहगीरों को संवेदन हीन बताते है, जबकि दर्शकों ने भी रिक्शेवाले की पिटाई की | दूसरे दिन जैसी कि खबर थी रिक्शावाला इस आरोप और अपमान को झेल नहीं पाया तथा आत्मग्लानि से पीड़ित हो उसने घर जाकर रस्सी से लटक कर आत्म हत्या कर ली | जैसा उसका दिन बहुरा - - -

[परिभाषाएँ]
१ - लेखक वह जो पैसे लेकर लिखे, पैसे के लिए लिखे |
२ - अर्थशास्त्री वह जिसे सोते जागते हर समय हर जगह गरीबी ही गरीबी नज़र आये |  
३ - मुस्लिम वह जो अल्लाह की इबादत करे , ईसाई वह जो GOD की Prayer करे | हिन्दू वह जो किसी को भी पूज सकता है |


* मेरे विचार करने, व्यवहार करने का एक ही तरीका है | मैं अपने मित्रों से सीखता हूँ और जब वे उसे भूल जाते हैं तब उन्हें बताता हूँ | 

* यह तो माना ही जाना चाहिए की पिछड़े लोग दलित नहीं हैं |

* साम्प्रदायिकता का सही अनुवाद तो Community ism / Communitism या फिर Communism बनता होना चाहिए ? यह Communalism कैसे हो गया ?

* मैं मार्क्सवाद का ककहरा भी नहीं जानता | वह कहते हैं न, कि आदमी बुराई जल्दी सीखता है ? सो मैं एक मामले में पक्का कम्युनिस्ट हूँ | मैं वर्ग चरित्र का पूरा ख्याल रखता हूँ | 
पता नहीं मैं इतना दरिद्र - सर्वहारा कैसे हो गया कि मैं चाहता हूँ सभी मेरे बराबर, मेरी तरह दरिद्र हों - लगभग बीस हजार माहाना आमदनी पर रहने वाला, यद्यपि हक़ीक़तन तो इससे भी कम पर लोग गुज़ारा कर रहे हैं, अर्जुन सेन जी तो बीस रूपये रोज़ पर |     
तो जैसे ही मैं पाता हूँ कि यह व्यक्ति तो धनिक समृद्ध [पूंजीवादी नहीं कहूँगा क्योकि मैं उसका अर्थ ही नहीं समझा पाऊँगा] है तो मैं उससे किनारा कर लेता हूँ | चाहे वह मेरा सगा भाई, सगा साला, अभिन्न पड़ोसी, सहमती विचारक, सहकार्यकर्ता ही क्यों न हो | एक मर्यादा के भीतर थोड़ी दूरी तो बनाता ही हूँ | वर्ग दोष के प्रभाव में मैं यह भी दरकिनार कर देता हूँ कि अरे यह तो अपने कवि नरेश सक्सेना हैं, प्रगतिशील धर्मनिरपेक्ष नास्तिक कम्युनिस्ट फलाँ फलाँ हैं ? यह तो जावेद अख्तर, सलमान रुश्दी हैं ? अरे तसलीमा नसरीन, और प्रिय प्रियंका चोपड़ा है न ? मैं किसी के पास नहीं फटकता | No lift to rich people | मानव जीवन और इसकी सारी कला विशेषताएँ क्या पैसा जोड़ने के लिए हैं ? धत्तेरे की | भाई के पास नई कार आयी नहीं कि बन्दे ने उन्हें ' बेकार ' करार दिया !        
इसी बात पर याद आना अच्छा लगा की एक [संत या आध्यात्मिक कर्मी  - धार्मिक विचारक न भी कहें तो ] अनुभूतिवादी ईसा मसीह ने कहा था कि सुई के छेद से हाथी तो पार हो सकता है, लेकिन धनी व्यक्ति    स्वर्ग नहीं जा सकता | तो उसका कुछ मतलब होता है और वह मतलब समझ में आता है |

प्यार,इश्वर और भविष्य इन तीनों का कोई अस्तित्व नही है लेकिन पुरी दुनिया इनके पीछे पागल है. जहाँ तक विवाह का सवाल है प्राचीन मानव समाज में इसका कोई अस्तित्व ही नही था. हजारों साल तक मानव बीना विवाह के ही रहता था और रूसो के अनुसार आज से ज्यादा सुखी था. मार्क्स भी परिवार को शोषण का औज़ार मानता था. जहाँ तक सेक्स और प्यार का सवाल है सेक्स एक प्राकृतिक कार्य / आवश्यकता है जबकि प्यार कुछ होता ही नही.असली चीज है दिमाग और हार्मोंस जिनके योग से सेक्स का जन्म होता है. इसिलिया केवल किशोर ही प्यार में पागल होते हैं क्योंकि उस उम्र मै ही हार्मोंस सर्वाधिक सक्रिय होते हैं. प्यार केवल कहानियों और उपन्यासों और कविताओं में मिलता है. प्यार एक प्यारी सि कल्पना का नाम है जिसे आज तक सभी तलाश कर रहें हैं पर यह आज तक किसी को नही मिला है. स्वार्थों के लिए एक दुसरे कि जरोरत प्यार नही एक समझौता होता है. येहि कारण है कि विवाह होते ही प्यार खत्म हो जाता है. सेवन येअर इत्च का नाम तो सुना ही होगा. इसका अस्तित्व ना होने के कारण ही सभी इसके तलाश में रहते हैं जैसे ईश्वर और भविष्य के तलाश में सभी मर रहे हैं.

* महिला आन्दोलनों के दबाव में पुरुष लोग शरीफ तो हो जायेंगे लेकिन देखिएगा, तब औरतें उनकी शराफत का नाजायज़ फायदा उठाने लगेंगी | 

* वाजिब होगा कि इस्लाम अपने सदस्यों को संगीत सुनने की भी मनाही करे | श्रोता न होंगे तो गायक गायेंगे क्या ? माँग और पूर्ति का नियम तो यहाँ भी चलेगा | एक तरफ़ा रोक तो उचित नहीं है | घूस के लेन  देन का मामला भी ऐसा ही है |   प्यार मोहब्बत का मामला भी ऐसा ही है | केवल लड़की को रोको और लड़के को कुछ न कहो अथवा लड़के को रोको और लड़की को नहीं | तो यह तो नहीं चलेगा |
" शिक्षक हौं सगरौ जग के " ऐसे मौलवियों को कौन संगीत कै राग सुनावत ?

* Our Value system  -
Himsa : Kabhi nahi | Terror : No, never | Killing : At no cost |

* The life is all the game of conditioning . The education is about it . The language, the culture, the civilization is all about conditioning of human lives .AC   

* निकलना तो चाहें मगर सब अभी भी 
फँसे तो हो तुम भी , फँसे तो हैं हम भी |

[ कविता ?]
* बाहर निकलो तो जेब /
गाँठ ढीली करनी पड़ती है ,
क्या चरित्र भी ?

* ग़ज़ल बेहतरीन ,
जो ताज़ातरीन 
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* एक तुम थे 
खून में रचे बसे 
जो बह गए ?

* चोर चोर थे 
बोला मैंने उनको -
मौसेरे भाई !

* जंगल में हूँ 
जानवर की भाँति
जीना होगा क्या ?