बुधवार, 30 मई 2012

सोने की तरह


गीत का मुखड़ा : -
सोने की तरह तपना , तपकर सोना बनना ,-
-- - - - -

शठे शाठ्यम समाचरेत

बड़ी खेमे बंदी है भाई विचार जगत में , और वही अब साहित्य जगत भी हो गया है | ज़रा सा भी अलग सोच लो या कोई शाब्दिक क्रीड़ा करना चाहो तो डर बना रहता है कि कहीं उस टोले का न मान लिया जाऊँ ! अरे भाई मैं प्रगतिशील हूँ तो अपने मन से और दकियानूस हूँ तो स्वेच्छा  से | इस पर किसी की क्या दबंगई ? लेकिन नहीं दादागिरी की इमरजेंसी लागू है , जब कि यहाँ न मार्कंडेय काटजू हैं न मीनाक्षी नटराजन | यह तो वैसा ही हुआ जैसे दो माफियाओं का झगड़ा हो | सरकारी प्रतिबंधों का विरोध इसलिए होता है जिससे इनका आधिपत्य कायम रहे | मैं कल्पना कर सकता हूँ कि इसी कारण लेखक जन इस या उस कस्बे में बस जाते हैं और फिर वहीँ के होकर रह जाते हैं क्योंकि इस धड़ेबाजी की स्थिति में इसके अलावा और कोई चारा नहीं है | उनकी कोई गति ही नहीं  यदि वे इनमे शामिल न हों | सबके पास इतना बूता नहीं होता कि अकेले अपनी लडाई लड़ सकें , या फिर मेरी तरह अन्धकार की गर्त में जाने के लिए कटिबद्ध हों | सबको अपना  भविष्य  बनाना होता हैं , कुछ  का तो कैरियर  भी होता है |  पर मौलिक प्रश्न तो शेष है कि यह कौन सी समता स्वतंत्रता भाईचारा का नमूना हम स्थापित कर रहे हैं कि किसी से बिना उसका प्रोफाइल पक्का जाने हम हाथ मिलाने या पास बैठने में संकोच करें ? क्या यह उसी प्रकार का छुआछूत नहीं है जिसके खिलाफ गाँधी जैसे परंपरावादी हिन्दू ने भी आन्दोलन चलाया ? कोई महान तरक्की पसंद बुद्धिजीवी बताये कि इसमें और ब्राह्मणवाद में क्या तनिक भी अंतर है जिसको कोसते ये कभी नहीं थकते ? यदि इसे ये उचित मानते हैं तो हमें भी पुनर्विचार करना पड़ेगा कि अपने विस्तृत मानववादी सोच को समय रहते हम भी संकुचित कर लें और अपने सामाजिक व्यवहार को तदनुसार रेशनलाइज [तर्कसंगत ? नहीं समयसंगत ] बना लें | स्वीकार करता हूँ कि उसी को दुनिया ब्राह्मणवाद के नाम से जानती है, और फिर जानेगी  - शठे शाठ्यम समाचरेत |

मंगलवार, 29 मई 2012

कमीना आदमी


मैं अपने आप पर , मुँह क्या खोलूँ ,
कमीना आदमी है , क्या बोलूँ ?


मैं अपने आप पर मुँह खोल दूं क्या ?
यह बड़ा कमीना है बोल दूँ क्या ?

or - मैं अपने आप पर मुँह क्या खोलूँ ?
       इस कमीने को क्या मीना बोलूँ ?

or  - मैं आदमी हूँ , कमीना हूँ ,
        मैं आदमी हूँ , एक मीना हूँ |

न आदमी, न ईश्वर


* ईश्वर नहीं है , यह तो तय है और ठीक ही है | लेकिन अब मुझे कहना पड़ेगा कि आदमी भी नहीं है | क्या आदमी के अस्तित्व का कोई प्रमाण दिखता है ? क्या यह  जो आदमी है , इसी को आदमी कहते हैं ? होने न होने के बराबर - जब इसका कोई योगदान ही जग के उत्थान में नहीं है ? इस प्रकार , तब तो ईश्वर का होना भी हमें मान लेना चाहिए - उसी प्रकार निरर्थक , अपने नाम का भार ढोता हुआ | तब पूरा वचन होगा - कि इस दुनिया में न आदमी है , न ईश्वर |

मेरा सिक्का


उवाच:-
मेरी जेब खाली है , लेकिन मेरा सिक्का किसी की जेब में नहीं समाता |
[ambiguous]

जिसे बरबाद होना है


[ शेर ? ]
सुनेगा बात वह मेरी , जिसे बरबाद होना है ;
और जो हो चुका बरबाद, सुनेगा बात वह मेरी |

शौचालय

जहाँ मैं बैठा था वहां से दस फिट की दूरी पर वह शौच करने बैठ गया नालायक | क्या करता हमारा शौचालय हमसे इतनी ही दूरी पर है !  [ ललित ]

सोमवार, 28 मई 2012

अभारतीय समाज


अभारतीय समाज  [ कोई गर्व / गर्भ नहीं ] Non Indian Society  [गैर-हिन्दुतानी ज़मात]
   कुछ दिन पूर्व हम पति पत्नी के के अस्पताल लखनऊ एक सुदूर सम्बन्धी के नवजात पुत्र को देखने गए थे  | वहां नर्सों ने हमें नेग के लिए परेशान कर डाला | और ५०-५० रुपयों में उनका काम कहाँ चलता है ? अब यहाँ कोलकाता हम अपने पुत्र को देखने आये हैं | वह ओप्रेसन से कार्पोरेट अस्पताल कोलंबिया एसिया में पैदा हुआ है | मैंने पूछा तो पता चला एक पैसा किसी को नहीं देना पड़ा , न देने की इजाज़त थी | अस्पताल वालों ने जो भी लिया , तो वह तो वहां भी खूब लेते हैं | यह फर्क है भारतीय और विदेशी तरीके में  | पुत्री जन्म पर तो वे भी नहीं माँगते , यह एक और लैंगिक विभेद का कारण है | इसी प्रकार जो लोग गर्व से हिंदी हिन्दू हिन्दुस्तानी कहते हैं वे देश का गर्भ - नाश करते हैं | अंग्रेज़ी और उस संस्कृति का विरोध करते हैं इसलिए उनके समय की पाबंदी कर्तव्य निष्ठां, अनुशासन प्रियता  की भी नक़ल नहीं करते | इंडियन टाइम तो मशहूर है , और उस पर वे शर्म नहीं खाते | ऐसे थोड़े हिंदुस्तान गर्त में गया है और आज़ादी का कोई लाभ इसे नहीं मिला , हाँ दुरूपयोग अवश्य हुआ | तिस पर भी पता नहीं क्या है जिस पर ये गर्व करते हैं और हमारे जैसे गर्व रहित लोगों को देश द्रोही बताते हैं | इसलिए , भले हमारा काम कुछ अतिशयोक्ति हो जाता है पर हमें अभारतीय समाज बनना चाहिए - अपनी कमियों का सूक्ष्म विश्लेष्ण और त्याग करना  चाहिए न की उस पर गर्व | और इसके लिए आलोचना सहने को तैयार रहना चाहिए |

दलितों के दोस्त


कविता :-
दलितों के दोस्त
दलित ही हैं
और कोई नहीं हो सकता ,
उन्हें किसी की हमदर्दी नहीं चाहिए
सवर्णों की सहानुभूति
उन्हें दरकार नहीं
वे छलिये , शोषक , धोखेबाज हैं |
तो दलितों के हितैषी
दलित ही हो सकते हैं -
वह भी दलित पुरुष
स्त्रियाँ भी हों तो हों
पर दिखतीं नहीं
सारे दलित पुरुष
कवि-कथाकार -चिन्तक '
एक्टिविस्ट मैदान में हैं |
सवर्ण भी पीछे -पीछे पूँछ हिला रहे हैं
दलित आन्दोलन में घुसने के लिए
पर वहाँ उनकी कोई पूँछ नहीं है ,
हो ही नहीं सकती
दलितों के समर्थक , दलितों के दोस्त
सिर्फ दलित हो सकते हैं
दलितों के दुश्मन भी दलित ही होंगे |

Three only


[ हाइकु]
दर्द मुझे है
दुखी , दोस्त होते हैं
फेसबुक के |

* अभी नहाया
अभी फिर हो गया
बदन तवा |

* छोडो , जाने दो
दिन  का सपना है
सच न होगा |


Six Haiku


[ हाइकु]
* बच्चे खेलते
बच्चे मेरा खिलौना
हम खेलते |

*मेरा ख्याल है
बंद होना चाहिए
यह नाटक |

* हम लोग तो
हारे हुए योद्धा हैं
जो भी सजा दो |

* ईश्वर है न
वर्ना कैसे रहतीं
जातियाँ - धर्म ?

* वर्जित फल
खाओगे तो क्या पुण्य
फल पाओगे ?

* स्वर्ग जाना है
वर्जित फल खाओ
मौज उड़ाओ |

उपन्यास अंश


[ उपन्यास अंश ]

- वह श्रेष्ठता- भाव से पीड़ित है |
- वह ब्राह्मण होगा !
- हो सकता है ,
  नहीं भी हो सकता है |

कमरों में ए.सी.


[ शेर ? ]

लगा तो मैं भी लूँ अपने कमरों में ए.सी. ,
मगर मैं अपने घर से तब निकल न पाऊँगा |

इतनी सी बात पर


कविता :-

कोई बहुत बड़ी आफत हो
तो रोयें भी '
चीखें - चिल्लाएँ
अब भला
इतनी सी बात पर  ---  ?

रविवार, 27 मई 2012

ख्याली पुलाव


मुझे थोड़ी चिंता है कि कुछ लोग सिर्फ शूद्रों / सवर्णों की ही भाषा में बात करते हैं | ठीक है कि वह भी  हकीकत है,पर जहाँ तक उसकी सीमा है उसी में उसको बंद रखिये | वे यह समझ ही नहीं पाते कि ब्राह्मण कुछ भी कहता रहे , शूद्र भी मनुष्य हैं, अपनी अच्छाइयों - बुराइयों  के साथ [ और इस प्रकार वे ब्राह्मण की अवधारणा और उसके औचित्य को ही सिद्ध करते हैं ] | और सवर्ण भी अपनी अज्ञानता - सांस्कारिक  गुलामी के अधीन एक मनुष्य ही है | व्यवहार में ब्राह्मण भी शूद्र है , और शूद्र भी उसकी स्थिति में होता तो ब्राह्मण ही होता! अब तो यह भी आश्चर्य करने की इच्छा  नहीं होती कि द्वंद्वात्मक भौतिकवादी भी , जो कि मनुष्य के निर्माण का दोष या श्रेय सामाजिक स्थितियों -परिस्थितियों को देते हैं , वे भी ब्राह्मण / शूद्र की उत्पत्ति उनके जन्म से मानते हैं | ज़ाहिर है , तब हम मूर्खों की सोच में ही कही कोई कमी होगी | तिस पर भी --
- ख्याल आया कि क्यों न हम सवर्णों की एक संस्था " शूद्र " बनायें , और घोषित करें -हम जन्म से नहीं कर्म से शूद्र हैं | निजी रूप से मैं तो सचमुच नीच व्यवहार अपनाने के पक्ष में हूँ जिससे हम पवित्रात्माओं की गालियाँ पायें और हमारा किंचित भी अवशेष अहंकार तिल -तिल कर तिरोहित हो | विवशता है कि हम दलितों की कोई संस्था नहीं बना सकते , हम अविश्वसनीय हो चुके हैं | पर सोच तो सकते हैं कि यदि हम शूद्र होते तो अपने को इसी व्यवस्था में क्यों न जनतांत्रिक अधिकारपूर्वक  ब्राह्मण घोषित कर देते ? हट ब्राह्मण ! सिंहासन खाली कर कि शूद्र जन आते हैं ?
-सब ख्याली पुलाव है,कुछ होने जाने वाला नहीं है | तो क्या यही जपें - होइहैं सोई जो राम रचि राखा ?         [ निर्निमेष ]

फालतू उत्पात

* अगर आप अपमान , जलालत , अपशब्द , भेदभाव नहीं बर्दाश्त क्र सकते तो अपने लिए कोई और देश देख लीजिये |
* आखिर वह दिन आएगा जब  घर का लोन चुक जायेगा , कार की किश्तें पूरी हो जायेंगी | तब खाली बच्चों की पढ़ाई का खर्च रह जायगा , तब कुछ भविष्य के लिए अवश्य बचा लेना | बुढ़ापे में हाथ खाली न रखना |
  { फालतू  फण्ड (Surplus thoughts) or /  उत्पात -- by -- उ.न.नागरिक }


Dinman Srivastava


अच्छा लगा चंचल जी ने दिनमान के अंदर की खबर दी | मैं तो बाहर का एक विनम्र पाठक था | मुझे याद है १९६३ में जब डिप्लोमा पढ़ने लखनऊ आया तब दिनमान ५० पैसे की थी | हर हफ्ते लेता था | तब संपादक अग्गेय जी थे, शीघ्र ही रघबीर सहाय जी आ गए | पर उससे मुझे क्या मतलब था | मेरी आयु थी १७ वर्ष | उसमे मेरे स्वभाव के अनुकूल गंभीर जानकारी और सोचने की सामग्री मिल जाती थी | मुझे आता जाता कुछ न था तब भी कला रंगमंच साहित्य आदि सब पर प्रयाग शुक्ल , नेत्र सिंह रावत , के एन कक्कड़ भी , के सारे आलेख निर्विकार भाव  से पढ़ जाता | बाद में कुछ प्राथमिकता भी बनी | सबसे पहले तो मत -सम्मत फिर फ़ौरन सर्वेश्वर का चरचे और चरखे , और अंत में कोई विश्व कविता | जाना कि लिखना कहते किसे हैं | फिर हॉस्टल के पते से लिखने भी लगा , सोचने / लिखने के अभ्यास के रूप में | आज चंचल जी के मापदंड पर कहूँ तो मैं "धन्य " था जो उसमे छपा और बराबर छपा |लिखने का अभ्यास यूँ हुआ कि अब सिर्फ कलम हाथ से पकड़ता हूँ , लिखता कोई और है | मुझे उसे पलट कर पढ़ने का समय नहीं होता | ज्यादा गलतियाँ भी नहीं होतीं , लिंग भेद न मानने के कारण कुछ लिंग -दोष  अवश्य हो जाता है | अतः आज की खेमेबंदी के बरक्स उन निष्पक्ष संपादकों को नमन करता हूँ |
 २० साल की उम्र में नौकरी लग गयी तो १५ साल की उम्र में जो शादी हो गयी थी उसकी ज़िम्मेदारियाँ लिए शहर शहर रहा | अब मेरी नियमित पत्रिका की सूची में थे दिनमान के अतिरिक्त  कादम्बिनी, धर्मयुग , साप्ताहिक हिंदुस्तान, सरिता -मुक्ता, नीहारिका - सारिका [ इन नामों पर दो  भतीजियों का नामकरण किया] | कहूँ कि मेरी पूरी पढ़ाई या संस्कार- निर्मिति ही  इन्ही से हुई , वरना मैं कुछ पढ़ा लिखा तो था नहीं - इण्टर था , वह भी विज्ञानं से | जो आज हालत यह है कि रूप रेखा जी , प्रमोद , नीलाक्षी और आप लोगों जैसे विश्वविद्यालय - पठित शिक्षक विद्वत-जन मुझे अपने वार्ता कक्ष में बैठने देते हैं, सब उन्ही पत्रकों की देन और वरदान है |और हाँ , नवनीत तो बताया ही नहीं , जिसने मुझे सांस्कृतिक - दार्शनिक दृष्टि दी , अहा! ज़िन्दगी की तरह मनोरंजक , और जिसके आधार पर अपने पुत्र का नाम ' नवनीत कुमार ' रखा

कोई उत्तर नहीं


[उवाच ]
* यदि हमारे और आपके विचार एक से ही होने होते ,तो विश्व की जनसंख्या में एक अदद की कमी न हो जाती ? फिर एक काम के लिए ईश्वर ने  दो मनुष्य बनाया ही क्यों होता ?
* कुछ प्रश्नों का सचमुच कोई उत्तर नहीं होता, जैसे यही जातिवाद - जातीय भिन्नता - ब्राह्मणवाद का !
* सच कह रहे हैं आप ! आप मुझसे छोटे नहीं हैं | लेकिन मैं आपसे छोटा हूँ तो सही ?

शनिवार, 26 मई 2012

नानी की मौत


कविता =  ' नानी की मौत '
                  -----------
मैं नहीं जानता जीवन मृत्यु ,
आदमी क्यों पैदा होता है ?
कैसे मरता है ?
लेकिन जब तुम
मर जाओगी नानी
तब मैं बहुत रोऊँगा |

कर्म विरत


[कवितानुमा] - कर्म विरत

मैं कुछ नहीं करता
उसे भी मेरा किया
मान लिया जाता है
मैं करूँ तो क्या  करूँ
जिससे मैं निर्दोष रहूँ ?
संभव नहीं इस जग में
कर्म विरत रहना
तो क्यों न कुछ करता रहूँ ?

HURRAY !


HURRAY !  all my friends , I could name my one month old only granson  as  “ DINMAAN “ (or Dinman Srivastava ) which was my long pending ambition  , based on my favourite magazine – old DINMAN edited by Aggeya and then Raghubir Sahai . I am very pleased today that my son accepted this name for his son .


मित्रों को हार्दिक धन्यवाद मेरी और से | और शिशु दिनमान का आप सबका चरणस्पर्श आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए | दोस्तों, मज़ा और तो तब आये जब उसका नाम केवल दिनमान रहे या दिनमान नागरिक हो जाये ,लेकिन  सोचता हूँ - किसी पर ज्यादा जोर डालना ठीक नहीं है | कोई विवाद नहीं पुनर्जीवित करना चाहता | पर इसे राजनीतिक विडंबना, या अपनी पराजय तो मानता हूँ या इस अवस्था में शक्ति की कमी  कि यदि बहू - बेटा उसका नाम स्कूल में श्रीवास्तव जोड़ कर लिखाएंगे तो मैं मना नहीं कर पाउँगा | अपना ही नाम कहाँ छिपा पाया ? बताना ही पड़ा कि मैं सवर्ण हूँ जिससे मेरे सामाजिक -राजनीतिक कर्म में कोई छद्म न पनपे , और जब सवर्ण हूँ तो कोई जाति बतानी ही थी | प्रमोद श्रीवास्तव जी के अनुसार हिन्दू धर्म का मतलब ही  जाति है , ये दोनों एक दूसरे से पृथक नहीं हो सकते ,और मैंने हार मान ली | यद्यपि कोशिश पूरी ईमानदारी से की जाति मिटाने की | लखनऊस्कूल के लोग जानते हैं , युवजन समिति के माध्यम से आन्दोलन को | अब इसका दोष सरलीकृत ढंग से आरक्षण / मंडल को दूँ तो दोषी हो जाऊँगा | इसलिए संतोष करता हूँ यह सोचकर कि तब हम नादान थे , युवा उत्साह था और  दुनिया की समझदारी में कमी थी , जिसकी  रौ में हम बह गए थे | तब भी इतना तो कर ही सका था कि बड़ी बेटी [दिनमान की एकमात्र बुआ] का नाम रजनीगंधा और छोटे एकमात्र बेटे[दिनमान के बाप] का नाम नवनीत कुमार बिना किसी उपनाम के रखा | बस वहीँ तक मेरी सीमा थी | मन थोड़ा खिन्न तो होता है , पर लोकतान्त्रिक आध्यात्मिकता के सहारे खुश होने की चेष्टा करता हूँ | आप सबका आभारी हूँ जो आज मेरे सुख / दुःख में मेरे साथी हैं |   26/5/12

तपस्या


[नागरिक उवाच ] :- बदमाश चिंतन
बड़ी तपस्या करनी पड़ती है माँ को बहू की थोड़ी सी फटकार सुनने के लिए !

प्रथमदृष्टया


प्रथमदृष्टया
--------
एक -एक अंग करके
पूरा शरीर बना ,
अतः , यदि शरीर की
कोई सार्थकता , प्रतिष्ठा है
तो इसका हर एक अंग
बहुत सुंदर होना चाहिए ,
अत्यंत  सुंदर है
चाहे वह कितना ही कुरूप हो ,
प्रथमदृष्टया |     

प्रिय संपादक

जो मैंने ' प्रिय संपादक '[पत्र मासिक] , के ज़रिये अस्सी के दशक से करना शुरू किया था , उसे फेस बुक और ट्विटर ने अब करके दिखा दिया | मेरी सोच और परिकल्पना असफल नहीं गयी , ऐसा मैं कह सकता हूँ, अपने मुंह मियाँ मिट्ठू बन सकता हूँ |

जब से मैंने होश संभाला


[गीत नहीं बन पाया ]
 जब से मैंने होश संभाला , द्वंद्व - द्वंद्व झेला ,
संगी- साथी, खेल - खिलाड़ी दंद -फंद खेला |

कथा कहूँ तो


[हाइकु]
* मज़ा आता है
बातें करते हुए
फेसबुकी से |

* कथा कहूँ तो
कहाँ से शुरू करूँ
अतः चुप हूँ |

कुछ ख़ास नहीं


[ कथा भूमि ]     कुछ ख़ास नहीं

मैंने ' क ' की तारीफ की तो ' क ' ने ' ख ' को बताया | मैंने ' ख ' की तारीफ की तो उसने ' ग ' को बताया | मैंने ' ग '  की प्रशंसा की तो उसने ' ज्ञ ' को चहक कर बताया की अमुक मेरी बड़ाई कर रहा था | मैंने ' ज्ञ ' की बड़ाई की तो उसने ' क ' के कान में फुसफुसा कर कहा कि फलाने तो मुझे पसंद करते हैं | ' क ' ने ठहाका लगाया और बोली - पगली उसकी बात पर न जा , उसने सबसे पहले मुझसे भी यही बात कही थी |

ज़माना तो बदलेगा


ज़माना तो बदलेगा

ज़माना ' यूँ ' न बदलेगा ,
ज़माना ' वूँ ' न बदलेगा ,
ज़माना ' यूँ ' तो  बदलेगा ,
ज़माना ' क्यूँ ' न बदलेगा ?

इनकम टैक्स बंद करो

* सरकार इतना धन कहाँ से पाती है खर्च करने के लिए ? उसके पास बहुत सारा पैसा है | उसके पास तमाम फिजूल पैसा है अपने सांसदों के वेतन - भत्ते बढ़ाने के लिए , अपार धन है जिससे उसमे बैठे आदमी , विधायिका  एवं कार्यपालिका के लोग खूब गुलछर्रे उड़ाते हैं , गड़बड़ घोटाले करते हैं  इसलिए यदि पैसे की बर्बादी बचानी है तो सरकार की आमदनी रोको | उसकी आमदनी मुख्यतः कर द्वारा होती है | उसे सीमित कर दो | सरकार को सिर्फ चिड़िये की प्यास बुझाने भर को पैसे दो | इनकम टैक्स बिलकुल बंद करो | कर्मचारियों का वेतन उनका इनकम नहीं है | ऐसे तो कुछ दिन बाद साधारण मजदूर भी इसके अंदर आ जायेंगे ! यह पैसा जिनके पास है उन्ही के पास रहने दो वे इसका ज्यादा सदुपयोग हिफाजत से  करेंगे | बजे इसके कि सरकार इनसे टैक्स ले और इनके ऊपर जनहित के नाम खर्च करने के बहाने घोटाले करे | शायद आप कहना चाहें कि घोटालों का पैसा भी तो इन्ही के बीच जाता है ? जी नहीं , तब वह गलत पैसा होने की भावना के साथ उनके पास जाता है और इससे उनकी आत्मा कलुषित होती है | उनके द्वारा कमाए गए उचित धन को उन्ही के पास रहने दो |

Slut walk-a spiritual journey


*Slut walk  is a spiritual journey . Get away with the load of thoughts and prejudices . Let your mind be uncovered, unclothed and dress it like a slut.
*If I can support you , why can’t I oppose you ?
*Ladies can go bare for a slut walk , but they can not breastfeed their child , in public what to say , in private even.
*It is very expensive to wear clothes , even the shortest most . Then why not go naked ? Why this body-covering DEE ?
* In fact ,who cares what you wear if you dare so . it is you who are sensitive about it  . Why do you not attend a marriage party in Lungi , and your class room in a spaghetti dress ?

मैं बुरा हूँ


[शेर ]
मैं बुरा हूँ , बुरा कहे कोई  ;
क्यों न मुझको बुरा कहे कोई ?
or -
[क्या बुरा है जो सच कहे कोई ?]

शुक्रवार, 25 मई 2012

vicharheen

* मैं शुरू से यह आभास कर रहा हूँ कि हमारा जरनैल सिंह निहायत नामाकूल सख्श है | क्या ३१ मई से पहले इनसे छुटकारा नहीं लिया जा सकता ?
[विचारहीन]

दुनिया सुखी रहे

* मेरा ख्याल है - दुःख में आदमी का दुखी होना तो स्वाभाविक है ,पर अपने दुःख को छिपाकर झेलना चाहिए , प्रकट नहीं करना चाहिए , ज्यादा हाय -तौबा नहीं मचाना चाहिए | लेकिन आदमी को अपने अपने सुख में सुखी होने और दिखने का कुछ ज्यादा ही नाटक करना चाहिए | जिससे दुनिया सुखी रहे |

कोई संतान


[हाइकु]


* मजबूरी है
सासुओं -ससुरों की
बहू अच्छी है !

* खिलाड़ी जन
सब बिके हुए हैं
खेल क्या देखें ?

* थोड़ी व्यवस्था
थोड़ी प्रकृति रहे
जीवन चले !

* ज्यादा खर्चा है
थोड़ा पहनने में
ज्यादा पहनें !


* कोई संतान
लायक नहीं होती
पितृ - दृष्टि में |

* इस तन में
कुछ रखा नहीं है
मैं जान गया |

गुरुवार, 24 मई 2012

स्लट वाक


स्लट वाक-
अप्रेल २०११ में किसी देश की  पुलिस ने लड़कियों के लिए कह दिया कि वे स्लट की तरह कपडे न  पहना करें | इस पर पूरे विश्व में हाहाकार मच गया | औरतों ने इसे अपनी आज़ादी का मुद्दा बना लिया | उनका कहना है कि वे जो चाहेंगी पहनेंगी ,स्लट की तरह कपडे पहनेंगी  कोई उनसे छेड़खानी या बलात्कार क्यों करे | अपनी इस बात को लेकर अपने आन्दोलन में वे कम से कम कपड़ों में मार्च करती हैं , जिसे स्लट वाक कहा जाता है | उनका एक तख्ती यह भी कहती है - आओ बलात्कार करो | अब पुरुष इतना कमीना तो है नहीं , कामुक पुरुष तो वैसे भी कमज़ोर होते हैं | अतः उनका आन्दोलन अख़बार की सुर्ख़ियों में सफल होता है , और लडकियाँ फिर सामान्य कपडे पहन लेती हैं | इस तरह के विरोध पर एक लोक कथा है कि एक आदमी ने ठान लिया कि उसे अपने साथी की बात नहीं माननी है | साथी ने कहा देखो नदी में न उतरना , वह नदी में घुस गया | साथी ने कहा -देखो जाओ तो जाओ ,लेकिन गले में पत्थर बाँध कर मत जाना , उसने भरसक वज़नदार पत्थर रस्सी में बाँधकर गले से लटका लिया | साथी ने कहा -अच्छा, पर गहरे पानी में न उतरना , वह गहरे , और गहरे पानी में उतरता चला गया |नतीजा हमें नहीं पता , आप शायद कुछ अनुमान कर पायें | क्या दोनों कहानियों में कुछ साम्य दिखता है ? एक पुलिस वाले की साधारण -सामान्य बात को इतने अतिशयोक्ति में ले लिया गया कि यह सोचा ही न गया कि शायद  साथी ने  कुछ थोडा सा सच न कहा हो, या तब भी इतना तो विरोध न करें , पहनें चाहे जो पहनें | वे जाने , उनका खर्च चलने वाले माँ-बाप जाने | हम कौन होते हैं बीच में बोलने वाले और वैसे भी हम औरतों के बारे में कुछ कह नहीं सकते  , उनकी आलोचना नहीं कर सकते | पुलिस ही मूर्ख थी , होती ही है |    

भूमि अधिग्रहण


भूमि अधिग्रहण
वह एक शेर है - मुझे मस्जिद में बैठकर शराब पीने दे , या वह जगह बता की जहाँ पर खुदा नहीं | उसी तर्ज़ पर कहा जा सकता है कि विकास के लिए मुझको ज़मीन लेने दे , या वह ज़मीं बता कि जो कीमती न हो | कहा जाता है कि उपजाऊ ज़मीं न लिया जाय | तो भला ऐसी कौन सी ज़मीन है जो उपजाऊ या किसी अन्य उत्पादक कार्य के लिए उपयुक्त न हो ? चीन ने जब भारत का भूभाग ले लिया था तो नेहरु जी ने यही तो कहा था कि छोडो , वहां कुछ नहीं उगता | अर्थात उसे चीन  ने ले लिया तो हमारा कोई नुकसान नहीं हुआ | लेकिन उनके इस वक्तव्य की तो बड़ी आलोचना हुई ! यहाँ तो ऊसर ज़मीनों को भी उपचार द्वारा उपजाऊ बनाया जा रहा है , और उसके लिए सरकारतमाम धन व्यय कर रही है |  इस प्रकार किसी भी धरती को बेकार नहीं कहा जा सकता | हर ज़मीन , धरती का हर टुकड़ा किसी न किसी प्रकार सार्थक है , तो क्या सड़कें न बनें ? दूसरी राजनीतिक माँग है कि मालिक की मर्जी के बगैर उसकी ज़मीन न ली जाय ! तो , मर्जी होने , न होने के पीछे तो कई तरह की प्रेरणाएँ होती हैं , लेकिन उस विवाद में मैं नहीं जाऊंगा | लेकिन तब स्थिति यह हो सकती है कि सड़क के रास्ते में कुछ टुकड़ों में सड़क होगी और बीच - बीच में कृषि योग्य खाली ज़मीन | तब वहां या तो कैंटीलीवर फ्लाई ओवर बने , या ऐसी गाड़ियाँ बनें जो आवश्यकतानुसार उछल - उछलकर चलें | दूसरा विकल्प मेरे विचार से ज्यादा मज़ेदार होगा | [विभास]  
(विचारहीन भारतीय समाज)

खुशवंत सिंह

खुशवंत सिंह निकट शतायु हैं , अर्थात मेरे पैमाने पर काफी बुज़ुर्ग | और वह सजग , बुद्धिमान ,पत्रकार और राजनीतिज्ञ भी हैं | राष्ट्रपति पद के लिए मैं उनका नाम प्रस्तावित करता हूँ | [निर्विवाद = निर्विचार (thoughtless) वार्ताकार दल]

अच्छा शासन


[हाइकु]
अच्छा शासन
मैं अवश्य चाहूँगा
अच्छा ईश्वर !

इस दिल में
प्यार की क्या कमी है
जो भी ले जाये |

लालच तो था
मेरे मन में , पर
कह न पाया |

मानो न मानो
कोई दबाव नहीं है
मान भी जाओ |

याद आ गया
एक वह समय
हम युवा थे |

कुछ नहीं समझती


[उवाच]
वह मुझको कुछ नहीं समझते / मैं उनको कुछ नहीं समझता / दुनिया हमको कुछ नहीं समझती |

डाक्टरों की पर्चियां


कविता -
डाक्टरों की पर्चियां
कुछ दवाओं की रसीदें
मिलेंगी तुमको
सिरहाने से मेरे ,
मत खौफ़ खाना
इन्होने ने ही तो
बचायी ज़िन्दगी मेरी
अभी तक , अभी
थोड़ी देर पहले तक !

खरा नहीं है


हाइकु -
१ - सब झूठ है
सचमुच भ्रामक
ईश्वर - धर्म |

२ - प्यास बढ़ाने से
कोई फायदा नहीं
प्यास मिटाने से |
[यह हाइकु नियम पर खरा नहीं है]

बुधवार, 23 मई 2012

मायके ससुराल



[कविता]
बर्तन मायके में भी माँजती थी
बर्तन ससुराल में भी माँजती हूँ,
गोबर चारा वहां भी करती थी
गोबर चारा यहाँ भी करती हूँ ,
वहां भाई पीटता था
यहाँ मर्द लतियाता है ,
वहां माँ- बाप थे
यहाँ सास -ससुर हैं
मुझे पसाने के लिए ,
मेरा नर्क तो हर जगह है |

आत्मा अवस्थित


[बदमाश चिंतन]
आत्मा उसको कहते हैं जिसमें मनुष्य का मन बहुत रमता हो | अतः मैं विश्वासपूर्वक,निश्चयपूर्वक कह सकता हूँ कि मनुष्य में आत्मा है और वह उसकी टाँगों के बीच में अवस्थित है |

देश की सीमा


[उवाच] - देश की सीमा
आप देश की सीमा की बात कर रहे हो , यहाँ एक-एक संस्थान,गृह समिति , सुपर बाज़ार , के परिसरों की सुरक्षा भी चुस्त - दुरुस्त रहती है | #
--------
Plan = Thoughtless Productions  By u.n.nagrik

बलात्कारी


कविता - [बलात्कारी]
पता नहीं क्या
मरे जाते हैं बलात्कारी
दो इंच ज़मीन के लिए ,
फ़िज़ूल बदनाम करते हैं
पुरुष और पौरुष को
हासिल कुछ नहीं होता
देश के चेहरे पर कालिख पोतते हैं
बलात्कारी |

नया बाबा


कथानक :- नया बाबा
उसने अपने शिष्यों को सुझाया कि मंदिर जाना छोड़ दो ,पूजा -पाठ छोड़ दो | ईश्वर चाहेगा तो सब ठीक हो जायगा| ( निर्धन बाबा)

काजू भरा पलेट में


कथानक :- काजू भरा पलेट में
* खालिस काजू नहीं , काजू वाला नमकीन था प्लेटों में जो मेहमानों को दिए गए | कुछ ने केवल काजू बीन बीन कर खाए और नमकीन छोड़ दिया | वे सब अभी थोड़ी देर ही पहले काफी कुछ खा चुके थे | लेकिन कथा नायक ने केवल कुछ नमकीन खाया और काजू सारा ही छोड़ दिया | लोगों को यह अनुमान लगाने के लिए पर्याप्त था की वह टुच्चा भुक्खड़ नहीं , एक खानदानी सुसंस्कृत मेहमान है | उसका अपना तो बस यही कहना था कि काजू गरिष्ठ हो जाता |

fb haiku


हाइकु कविता [इस विधा में तीन लाइनों में ५-७-५ अक्षर संयोजित किये जाते हैं]
१ - कोई ट्रेन हो
आदमी भरे पड़े
उप - डाउन |

२ - मुंह मोड़ लो
इस आकर्षण से
कुफलदायी |

३ - पैसे लेकर
हार गए हम तो
जीवन - मैच |

४ - घूम घूम के
बुद्धू लौट करके
घर को आये |

५ - तोड़ पाओ तो
तोड़ दो , न टूटे तो
जान मत दो |

६ - टूट पाए तो
तोड़ दो , न टूटे तो
रहने ही दो ,
परम्पराएं
ज़िन्दगी के तमाम
रीति - रिवाज़ |

मंगलवार, 22 मई 2012

6 Poems

कविताएँ :
१ - बच्चे जैसे जैसे 
बड़े होते जाते हैं ,
मैं बूढ़ा होता जाता हूँ |

२ - इसी कारण 
सदा मैं काम 
जोखम के उठता हूँ ,
कि आखिर मौत को भी तो 
बहाना चाहिए कोई ! 

३ - इसके चलते मैं युगों से 
इस कदर हैरान हूँ ,
किसने मेरे सर पे रखा 
बुद्धि का जलता दिया ?

४ - इसी से वक्त मुझको देख 
इतना तेज़ भगता है ,
कहीं यह आदमी 
मुझसे भी न 
आगे निकल जाये ! 

५ - सब स्वयं अच्छे हों 
यह तो बहुत अच्छा है 
लेकिन यह पर्याप्त नहीं ,
सबके ऊपर सब 
नज़र भी रखें 
जिससे आदमी 
बिगड़ने न पाए ,
ताला दोनों तरफ से हो 
वह ज्यादा अच्छा है |

6 - Whom  I  loved 
Means , whom  I  kissed ,
Or , who  kissed  me .

अव्यवस्थाएँ


 [उवाच]
अव्यवस्थाएँ भी बड़े व्यवस्थित ढंग से पैदा की जाती हैं ।

समय प्रवाह


कविता :- समय प्रवाह 

- " ज़माने की धार को 
हम रोक नहीं सकते |"
- क्या मतलब ? क्या 
उसका प्रवाह  इतना ऊपर से
इतना नीचे की ओर है
जो इतनी तेज़ है ?
- हाँ , शायद !
या ऊपर - नीचे का प्रश्न नहीं 
बस पहाड़ से 
समतल धरती की ओरे है |
हम इसके प्रवाह को रोक नहीं सकते | #

प्रयास-प्रार्थना

कविता  :-
 मुझसे  / 
प्रार्थना  करने  को  /
 कहा  गया  था  / 
मैं  प्रयास  करने  लगा  |

तनिक नीचे झाँकिए


कवितानुमा -

यदि आप
अपने कमरे में बंद हैं
तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता
कि आप का फ्लैट किस मंजिल पर है,
तनिक नीचे झाँकिए |

रविवार, 20 मई 2012

आइ पी एल को बंद

कीर्ति  आज़ाद ठीक कहते हैं | आइ पी एल खेल के नाम पर अपराध और व्यापार का घिनौना खेल चलता है | ये देशों कि टीमें नहीं , व्यवसायियों की अंतरराष्ट्रीय दुकानें हैं | ऐसे आइ पी एल को बंद होना ही चाहिए |

चेतना के उफान से जागो

कविता -
सवेरा हो गया है , अब जागो 
अँधेरा खो गया है , अब जागो ;
अब जो जागो तो आँख से ही नहीं 
चेतना के उफान से जागो |

कविताएँ - २०/५/१२


कविताएँ - २०/५/१२
१ - साहेब और सहिबाइन तो चले गए 
सांस्कृतिक कार्यक्रम में ,
गाड़ी में बैठे , उनका इन्तज़ार करते
ड्राइवर और चपरासी ने     
क्या देखा ? #

२ - वही एक स्टेज
कभी  जंगल , कभी पहाड़ ,
कभी नाचघर का रूप लेता ,
कभी अट्टालिका , 
कभी गरीब का घर बनता 
सब एक यही स्टेज 
कई पात्र , सब अपने - अपने निर्देशक 
अपना संवाद बोलते ,
भूमिका निभाते ! #
---------------------
योजना -[संस्था]
१ - नया विश्वास [ A Faith in Democracy]  & / or
२ - सांस्कृतिक सरोकार [सांस] / सांस्कृतिक सरोकार दल [ सांसद ]

ताड़न के अधिकारी

ताड़न के अधिकारी
हर चीज़ का एक स्थान होता है , और वह वहीँ शोभा देता है | सिन्दूर को माँग की बजाय औरत यदि नाक पर लगा ले तो वह हास्यास्पद ही लगेगी | अब मान लीजिये हम तय करें कि छात्रों को धर्मग्रंथों के अंश पढ़ाए जायं , तो क्या हमारे विशेषज्ञ  राम चरित मानस का वह अंश पाठ्य पुस्तक में डाल दें  कि :- " ढोल गवांर शूद्र पशु नारी , ये सब ताड़न के अधिकारी |  " और यदि हम कुछ बोल दें , एतराज़ कर दें तो हमसे कहा जायगा - "चुप रहो, यह गोस्वामी की अभिव्यक्ति और काव्य -कला और साहित्यकार की स्वतंत्रता  का प्रश्न है , ? " | मित्र बताएँ क्या मैं संकुचित जातिवादी धारणा से ग्रस्त हूँ ?

शनिवार, 19 मई 2012

ज़िन्दगी


[कविता ] :-

जीते गए 
जीतते गए 
ज़िन्दगी | #  

सवर्ण समालोचना :-

सवर्ण समालोचना :-
प्रथमतः हम यह स्पष्ट कर दें कि एक सवर्ण के तौर पर हम यह मान सकते हैं कि आंबेडकर कार्टून पर आपत्ति नहीं की जानी चाहिए | यदि वह कार्टून कोर्स में होता ही तो भी उसे सहन किया जाना चाहिए था जैसा कि दलित अन्य विसंगति सह रहे  हैं | लेकिन जब उन्होंने इसे आपत्तिजनक मानकर मामले को उठा ही दिया है तो हमारा यह कर्तव्य बनता है कि आपत्ति के औचित्य- अनौचित्य  पर पुनर्विचार करें | पहले तो हम यह मान  लें कि कोई भी कलाकार त्रुटियों से परे कोई पराप्राकृतिक प्राणी  नहीं होता | यदि आंबेडकर की व्यक्ति पूजा नहीं की जानी चाहिए तो निश्चय ही शंकर पिल्लई की भी आराधना नहीं की जानी चाहिए | दूसरे यह कि यदि किसी की कविता -कहानी -लेख -कार्टून कोर्स की किताब में  शामिल न हो पाए तो इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए घातक नहीं  कहा जा सकता | तीसरे , किसी भी कला का श्रोता - दर्शक -समीक्षक सम्बंधित कलाकार से कम कलाकार नहीं होता | इसलिए हम एक जनता-पाठक की हैसियत कार्टून [की प्रासंगिकता] की चीर फाड़ साधिकार कर सकते हैं |
घोंघा [स्नेल] एक जीव है जिसका सहारा धीमी गति के प्रतीक रूप में कार्टूनिस्ट ने किया | ज़ाहिर है उस पर आंबेडकर कोड़े चला सकते थे , और नेहरु भी | उस समय के लिए तो बात आई गयी ख़त्म हो गयी | लेकिन संविधान हमेशा धीमे चलने वाला जंतु तो है नहीं , वह तो एक निर्जीव [ किन्तु पूर्ण जन समर्पित एवं देश पर लागू ] पुस्तक के रूप में हमारे सामने है और उसके निर्माता के रूप में अम्बेडकर का नाम सर्व विदित है | तो अम्बेडकर अपनी किताब को तो पीट पीट कर दौड़ा नहीं सकते थे ? अतः यह निष्कर्ष निकालने में किसी छात्र और शिक्षक को कोई  कठिनाई  नहीं होगी कि नेहरु का हंटर आंबेडकर के लिए है | और यही है उस कार्टून पर दलितों के आपत्ति का मुख्य कारण , जो पूरी तरह से वाजिब है | 
और देखें , तो क्या संविधान का धीरे या तेज बनना आज कोई महत्त्व रखता है ? या यह बताना कि संविधान निर्माण कमेटी  में कितने सदस्य , कौन - कौन थे और उन्होंने इसकी ड्राफ्टिंग में कुल कितने घंटे का समय दिया ? सारा भार अम्बेडकर पर था , और इसीलिये लगभग  अकेले संविधान के निर्माता के रूप में दलितों में जो  उनकी ख्याति है ,वह वस्तुतः तो  गलत तो नहीं है श्रेय भले कितने ही लोग लें | तो , हम भले सवर्ण मानसिकता से ग्रस्त हों , पर अम्बेडकर के प्रति हमें  इतना कृतघ्न तो नहीं होना चाहिए कि उनके सम्मान को एक कार्टून की बलि वेदी पर चढ़ा दें , या उनके असम्मान की कोई भी गुंजाईश किताबों में छोड़ें | यदि मान लें कि वह हमारे पूज्य या पूर्वज नहीं हैं , तो भी हमें मानना होगा कि किसी के भी पुरखों का अपमान करके हम अपने पुरखों का सम्मान बचा नहीं पाएंगे | और अंततः पुनः इस तथ्य पर ध्यान देना बहुत ज़रूरी है , और यह गलती व्यापक रूप से मीडिया में व्याप्त है | कि हमारी समस्या/ हमारा काम सम्प्रति  छात्रों के लिए उपयुक्त पठन सामग्री चुनने की है , न कि अख़बार चलाने की | यहाँ यह भी प्रश्न नहीं है कि अम्बेडकर का चित्र नहीं छपा जा सकता |

रास्ता ढूँढने में

[कविता]
आने में नहीं ,
रास्ता ढूँढने में 
देर लगी  |

भारत में राजनीति


भारत में राजनीति को वह स्थान नही मिला जो उसे मिलना चाहिए यही कारण है कि  हमारे देश में राजनीति शुद्ध नहीं हो सकी , न शुद्ध लोग ही राजनीति में आये जिससे इसकी सफाई हो सकती | गन्दगी में गंदे लोग ही आये और पले बढ़े , और उन्होंने इसे और गन्दा ही किया | कारण , कह सकते हैं कि भारत में जनता के बीच राजनीतिक संस्कृति थी ही नहीं थी | यह काम राजा के जिम्मे था | लोकतंत्र का विकास नीचे से हुआ  ही नहीं | अलबत्ता , दूसरी तरफ यहाँ धर्म को ज्यादा मान्यता मिली | जनता उसमे ज्यादा रची बसी थी | इसीलिये संतों -महात्माओं को राजनेताओं की अपेक्षा अधिक महत्त्व मिला , और उन लोगों ने उससे जो राजनीतिक काम भी कराया , उसने किया | प्रथम जन विद्रोह सेना के माध्यम से कारतूस में पशु की चर्बी के चलते हुआ , अर्थात धार्मिक चेतना के कारण , न कि राजनीतिक चेतना वश | गौर करें तो गाँधी और गाँधी की राजनीति उनकी संतई के प्रभाव में ग्राह्य और  सफल हुई और उन्हें महात्मा कहा गया | विनोबा , जे पी भी संत या संत समान थे तभी जन मानस में उनकी घुसपैठ  संभव हुई | आज के समय में भी जय गुरुदेव - रामदेव ज्यादा सम्मानित हुए , और संत छवि के कारण ही अन्ना का आन्दोलन कुछ ही सही, सफल हो रहा है | अवश्य कुछ खालिस राजनेता भी जनगण मन को जीत सके , सुभाष , नेहरु , पटेल , आंबेडकर आदि अपवाद हैं , पर वे सब स्वतंत्रता आन्दोलन की उपज या देन      
थे | तिस पर भी सूक्ष्म दृष्टि डालें तो उन पर भी धर्म की एक झीनी चादर चढ़ी है | तो फिर आज कैसे उम्मीद करें की कोई खरा राजनेता उभरे जब यहाँ राजनीति गन्दा काम माना जाता है , संत महात्मा कितने भी गंदे काम करें , पूजे जाते हैं |

ममता बनर्जी

ममता बनर्जी अपने प्रदेश का काम काज देखें कि कहीं कोई उनके कार्टून तो नहीं बना रहा है , और कोई मिल जाये तो उसे जेल भिजवाने का काम करें | MCC के काम में हाथ बताने का कष्ट न करें | क्योंकि , एक तो वह घटनास्थल पर थीं नहीं और दूसरे वह देश की दीदी भले हैं , नानी या रानी नहीं हैं | 

कार्टून पर प्रतिबन्ध

- - - तो अब शंकर पिल्लई पवित्र गाय हो गए ? महान , infallible कलाकार ,जिनसे कोई गलती हो ही नहीं सकती ? [ और वैसे ही योगेन्द्र / सुहास विद्वतजन भी ] | फिर भी कोई दलित उनका निरादर कहाँ कर रहा है ? उनके कार्टून पर प्रतिबन्ध की माँग कहाँ कर रहा है ? यह तो उसी तरह से है , जैसे कि वह  उसे पुरस्कृत करने [कोर्स की किताब में रखकर] के पक्ष में नहीं हैं | बस | पता नहीं  इसे अभिव्यक्ति की हत्या कैसे माना जा रहा है ! या हो सकता है हम स्वतंत्रता प्रेमियों की बात को ठीक से समझ न पा रहे हों , पर यह इतना उलझने वाला मामला तो नहीं लगता !

नए मुल्ला

क्या सिर्फ मुस्लिम मुल्लाओं की ही आपत्ति सुनी और उस पर कार्यवाही की जायगी ? कुछ याद है कितनी कोर्स की किताबों पर बवेला मचा ? वह भी कार्टून तो जाने दीजिये , illustrations पर ? तो देश में उनके अलावा भी कुछ नए पुराने मुल्ला -मौलवी हैं, उनके भी अपने इष्ट और पैगम्बर हैं !

शाहरुख़ खान

शाहरुख़ खान के लिए हम कठोर दंड का प्रस्ताव कर सकते थे , लेकिन डर है कि फिर वही
वितंडा खड़ा हो जायगा कि उनके 'खान ' होने के नाते उन्हें सताया जा रहा है | शबाना आज़मी तक यह हथियार अपना चुकी हैं | यह सुविधा तो है ही इन लोगों के पास |

शुक्रवार, 18 मई 2012

अन - अनुशासन

 अन - अनुशासन :-
फौज के बीच झगड़ा तो होना ही था | सब जनरल के झगड़े का रंग है | 

आँसू के खून


[कविता] - आँसू के खून
-----
'खून के आँसू'
एक प्रचलित मुहावरा है ,
तो आँसू के भी खून
ज़रूर होते होंगे !
हैं न मेरे पास
शिराओं में दौड़ते !

दुःख का कारण

[व्यक्तिवाचक] - मेरे दुःख का कारण यह है कि मैं अपने ऊपर ज़रुरत से ज्यादा जिम्मेदारियां लाद लेता हूँ | इसका निवारण यह है कि मैं एक -एक करके इनसे मुक्त हो हो जाऊं |

देहाती औरत

कथा संभव :   देहाती औरत 
-------------
हमारे बेटे को जब बेटा हुआ तो पत्नी ने कहा -पोते का नाम कुछ ख़राब सा रखो , उसे दीर्घ जीवन मिले | गाँव में विश्वास है कि ऐसा करने उन दम्पतियों के बच्चे जी जाते हैं जिनके बच्चे पैदा होकर मर- मर जाते  हैं | 
-लेकिन हमारा तो पहला पोता है , और बड़ी पोती भी अच्छी भली है |
- उससे क्या होता है , एक ही जिए -जागे - अम्मर रहे |
- पड़ोसी  के पूछने पर मैंने  पोते का नाम ' बेकारू ' बताया  | ख़राब नाम रखने और अच्छा नाम न रखने का कारण पूछने पर जो कारण था वह  बता  दिया | " न विश्वास हो तो चाची से पूछो " |
लेकिन चाची ने उसकी पुष्टि नहीं की | बस इतना कहा कि इन्होने रख दिया तो ठीक है |
  उनके जाने के बाद मैंने इनसे पूछा - तुमने मेरी बात को सही क्यों नहीं कहा , जब कि तुमने ही मुझसे यह बात कही थी ?
- तुम समझते नहीं हो , पड़ोसी मुझे देहाती भुच्च्रड़ समझ लेते | #

चार बातें


चार बातें 
----------
१- हमारी अंतरात्मा में  सीधे - सीधे वह वस्तु क्यों न हो जो आपके इष्ट संत [ जैसे साईं बाबा] की अंतरात्मा में थी या है - स्वार्थ से निकल कर जनहित -जनसेवा की भावना ?
२-जिस धन पर टैक्स न चुकाया गया हो वही काला धन हो जाता है | बाबा रामदेव टैक्स नहीं चुका रहे हैं |
३ - यह तो तय है कि हमें गुलाम बनना है | आजादी के मूल्य हमारे खून में नहीं हैं | अब हमें तय यह करना है कि हम किसकी गुलामी स्वीकार करें , अंग्रेजों की , अमरीका की , माओवादियों  की ,  आतंकवादियों की , या अपने दलित भाइयों  की ? 
४ - कोई ज़रूरी है क्या कि हम जो सोचते -लिखते हैं वह सही ही हो ? हम गलत भी हो सकते हैं , वह हमारा अधिकार है |

गुरुवार, 17 मई 2012

Pramod Joshi

इस  सम्बन्ध  में मेरे अनुभव में  एक अद्भुत - आदर्श  व्यक्ति का चित्र  है जिसके पास ज्ञान, कौशल , प्रजातान्त्रिक  सोच , विपरीत / विभिन्न विचारों को समाहित करने वाला और पत्रकारिता के अनुभवों एवं गुणों से युक्त है और "प्रिय संपादक " के मर्म को भली भाँति समझता है | वह हिंदुस्तान के दिल्ली एडिशन के एडिटर थे | अब फ्रीलांसिंग कर रहे हैं , दिल्ली [वैशाली , गाज़ियाबाद] में रहते हैं | नाम है उनका श्री प्रमोद जोशी | उनका परामर्श और सहयोग बहुत उपयोगी हो सकता है , यदि ज़रुरत पड़े तो  , और जहाँ तक मैं अनुमान कर सकता हूँ , वे सहर्ष इसे प्रदान करेंगे | लेकिन सौ की एक बात है कि सफल पत्र चलाने  के लिए पर्याप्त प्रारंभिक धन चाहिए | फिर तो यदि प्रोफेसनल तरीके से निकाला गया तो यह निश्चय ही आत्मनिर्भर और पाठकों को ग्राह्य होकर विख्यात हो जायगा , और असंभव नहीं कि कई लोगों के आमदनी का स्रोत भी | मुझे तो इसको चलते देखने के अलावा और कोई चाह नहीं है |     

बुधवार, 16 मई 2012

अध्यक्ष जी की अनुमति से


अध्यक्ष जी की अनुमति से 
----------------------------
जैसे सभाओं का अध्यक्ष कुछ नहीं करता , केवल सभा की शोभा बढ़ाता है | उसके नाम पर उसकी बिना दी गयी अनुमति से संचालक अपने मन से सभा को चलाता है | अध्यक्ष को तो सबसे अंत में बोलने कि नौबत आती है , तब तक सभागार लगभग खाली हो चुका होता है | उसे बोलने की ज्यादा स्वतंत्रता भी नहीं होती , पिछले वक्ताओं की बातों को समेटने के सिवा
उसी प्रकार ईश्वर की अनुमति से इस संसार रूपी सभागार को कुछ धूर्त संचालक अपनी मन मर्जी से चला रहे हैं , और उसके नाम पर  सारा गुल - गपाड़ा , छल -छद्म कर रहे हैं | भोले श्रोतागण इस उम्मीद में बैठे  इनके ठगी के शिकार हो रहे हैं कि अंत में तो अध्यक्ष ईश्वर कुछ बोलेगा ! उन्हें क्या पता कि वह कुछ नहीं बोलेगा क्योंकि वह गुस्से से सभागार छोड़ कर बाहर निकल गया है और अब वह वहां है ही नहीं  | #
२ - हिन्दुओं में कथा सुनने की परंपरा है | कोई भी अवसर आया , पंडित बुलाया , पंजीरी -चरणामृत बनवाया और सत्य नरेन व्रत कथा सुन ली | सुनने  वाले को आज तक यह पता नहीं चला कि वह असली कथा कहानी क्या थी जिसे कन्या कलावती आदि ने सुना , या नहीं सनने पर दंड भोगा ?
आगे सोचें तो कथा तो साहित्य का अंग है | तो क्या हिन्दू स्वभावतः , संस्कार से इतना  कथा/ साहित्य  प्रेमी हैं ? असंभव नहीं , क्योंकि आज हिंदी कहानियाँ लिखी तो वैसी ही जा रही हैं , जिनके बारे में पता नहीं कि कन्या कलावती ने कौन सी कथा सुनी थी ? हम तो उसे न सुनने की सजा भुगत रहे हैं | #
३ - जिसमे सबसे कम पैसा खर्च हो , मेरे ख्याल से वही शिक्षा पद्धति सर्वोत्तम है | #
४ - मैं सोचता हूँ कि इतनी आजादी तो है सबको हिंदुस्तान में ! फिर भी कुछ मुसलमान कश्मीर में क्यों नहीं रहना चाहते ?
५ - मेरे इस ख्याल में क्या खोट है कि यदि कोई अँगरेज़ ईसाई अरब देश में जाय तो वह यह जान ले कि उसे इतवार को  छुट्टी नहीं मिलेगी ? और इसी प्रकार मुसलमान को फ़्रांस में जुम्मा की छुट्टी नहीं मिलेगी ? हिंदुस्तान की बात और है और वह निराली है | यहाँ तो कोई भी आये अपने मन में ख्याल बना कर आये कि वह इस देश का मालिक और राजा है , वह जब , जैसा चाहें , कुछ भी कर सकता है | यहाँ से एक विश्व राजनीतिक व्यवस्था की परिकल्पना करने का मन हो रहा है | वह यह कि तमाम देशों में भिन्न भिन्न प्रकार के राज्य हों -सिख , ईसाई , इस्लामी , साम्यवादी , सेकुलर [हिन्दू और नास्तिक भी] इत्यादि , और नागरिकों को कहीं भी जाने रहने की आजादी हो | जिसको जैसा शासन पसंद हो वह उसी प्रकार के देश में जाकर बसे और हार्दिक -मानसिक -आस्थिक रूप से खुशी खुर्रम से रहे | आज तो अजीब किस्म की तनातनी चल रही है | एक कमज़ोर सीधे सादे देश को कोई माओवादी बना रहा है , कोई इस्लामी बनाने के चक्कर में है तो कोई सेकुलर , तो कोई राज करेगा खालसा का उद्घोष कर रहा है, और हिन्दू तो यह खानदानी है  | इससे वह कुछ नहीं बन पा रहा है , और जनता की एकनिष्ठता और प्रतिभा का समग्र प्रयोग / उपयोग नहीं हो पा रहा है | इस प्रस्ताव को हवाई कहकर भले टाल दिया जाय , पर यह लोकतंत्र का शिखर हो सकता है | सचमुच क्यों रहें देश की सीमायें ? और कोई भी व्यवस्था  अपने देश की सीमायें क्यों लांघे ? अनेकता का पालन विश्व स्तर पर हो अपने अनुशासन के साथ |

धार्मिक भावना

धार्मिक भावना 
१- अन्य सामान्य अतिक्रमणों के विपरीत जब कभी वैध / अवैध मंदिर तोड़े जायेंगे तो उनका प्रखर -प्रबल विरोध होगा | कहा जायगा -यह जनता की धार्मिक भावना पर चोट / प्रहार / कुठाराघात है | इसलिए मेरा सुझाव है कि मंदिरों के न बनने देने को सेकुलर सरकार को अपनी धार्मिक भावना बना लेनी चाहिए और उसे इसी प्रकार प्रदर्शित / व्यवहृत करना चाहिए | अर्थात  उसे कहना चाहिए कि मंदिर बनने से उसकी धार्मिक भावना को चोट लगती है | सचमुच , हर मंदिर उसकी छाती पर मूसल समान होना चाहिए |
२- मैं सत्संगों में भाग नहीं लेता क्योंकि वहां मेरी धार्मिक भावना आहत होती है | संत और उनके भक्त ईश्वर -अल्ला चिल्लाते हैं ,जो मेरी उस आस्था के विपरीत है कि ' ईश्वर नहीं है ' |

priyasampadak

' प्रिय संपादक " [ 46167 /84 ] हिंदी मासिक
यह शीर्षक मेरे पास १९८४ से रजिस्टर्ड है | पुराना दिनमान पढ़ते , उसमे लिखते (सीखते) मेरे मन में यह सनक सवार हो गयी कि लोकतंत्र में लोक की आवाज़ को मुखर करती हुयी संपादक के नाम पत्रों की एक पत्रिका चलायी जानी चाहिए / चल सकती है | सो मैंने यह शीर्षक लेकर [संयोगवश यह मिल भी गया] इसे शुरू कर दिया | पर मैं परिवार के पालन के लिए गलत जगह सरकारी नौकरी में था | इसलिए इसे बहुत विस्तार देकर अपने सपनों के अनुकूल सफल न बना सका | कोई ग्लानि नहीं पर उल्लास को संतोष कहाँ ? मेरे मूल विश्वास में अब भी ज़रा भी कमी नहीं आई है कि ऐसा पत्र यदि संसाधनों और पत्रकारिता के कौशल के साथ डटकर चलाया जाय तो इसे दैनिक तक ले जाया जा सकता है और इसकी सफलता , जनतंत्र की सफलता होगी | कोई अभिमान नहीं पर आत्मविश्वास अवश्य है कि अभिव्यक्ति की आजादी के प्रति मैंने अप्रतिम आस्था अपने भीतर विकसित की , और मिशनरी तरीके से अपनी आमदनी से पत्र को हर संभव तरीके से चलाया , यहाँ तक कि हार्ट अटेक होने पर बिस्तर पर पड़े - पड़े पोस्ट कार्ड लिखकर भी [जिसकी चर्चा उस समय टी वी पर सुरभि कार्यक्रम में भी हुई ] | सार्वजनिक रूप से असफल होने पर फिर उसे अपने व्यक्तिगत रचनाओं का पत्र / किताब बना दिया जो अब भी छिटपुट चल रही है | पर यह तो कोई बात नहीं हुई , और ६६ की उम्र के बाद तो कुछ होना भी नहीं है | उसे अब बंद करना पड़ेगा ,जो मेरी मृत्यु से पूर्व ही मेरी मृत्यु होगी | इसलिए अब प्रस्ताव करना चाहता हूँ अपने तमाम मित्रों से कि कोई इसे ले ले और चलाये | कोई शुल्क नहीं | कोई आग्रह भी नहीं कि उसे मेरे कल्पित रूप में ही चलाया जाय | कैसे भी चले एक आस ,एक प्यास ज़रूर है कि वह अभियक्ति की आग और मशाल बने तो  कितना अच्छा हो ----
उसी तरह का एक और पत्र अंग्रेज़ी में READERS write [weekly ]भी है - A journal of letters to the editor . RNI -1991
एक और पंजीकृत पत्र है " संक्षिप्त सत्य प्रतिलिपि (हिंदी मासिक )" RNI -1991,
और आख़िरी है - " नास्तिक धर्मनिरपेक्षता ( हिंदी मासिक )" RNI -1991 
मेरा ईमेल पता है - priyasampadak@gmail.com  और मोबाइल नं.है - 09415160913 .धन्यवाद !        

इस तन में


* इस तन में 
कुछ रखा नहीं है 
फिर भी पिले | #

तिस पर भी

तिस पर भी 
हमें अपने कवियों - कार्टूनिस्टों पर , पत्रकारों - पढ़ाने वाले मास्टरों - शिक्षाविदों पर, कोर्स की किताबें बनाने वालों पर, हवाई जहाज के पायलटों- बस के ड्राइवरों  पर , आपरेशन करने वाले डाक्टरों - दवा देने वाली नर्स पर , इंजीनियरों  [वगैरह -वगैरहपर भरोसा करना ही चाहिए |
थोड़ा स्पष्ट हो लें कि यह मामला अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का तो है ही नहीं | वह तो १९४९ से ही सुरक्षित है | प्रश्न है क्या -क्यों - कैसे पढ़ाया जाय ? किताबों, खासकर टेक्स्ट बुक्स  में illustrations  की ज़रुरत है या कार्टूनों की [यदि वह कार्टून की किताब नहीं है ] ? संभव है दोनो  विद्वानों ने उन पर ध्यान न दिया हो क्योंकि उनके मन में  कोई खोट नहीं होगा, और प्रौढ़ बुद्धि के लिए उसमें कुछ भी अनुचित नहीं है | और अनुचित नहीं है इस त्रुटि की ओर सांसदों द्वारा इंगित किया जाना [प्रो. के घर कुछ उत्पात को छोड़कर], और इसे सरकार द्वारा मान लिया भी उचित ही था | इतनी दकियानूसी  उत्तेजना भी ज़रूरी नहीं है | न इस वर्ष से पर अगले एडिशन में करेक्शन कर लिया जाना चाहिए | देखना होगा कि २०१२ , १९४९ नहीं है |तब मंडल कमीशन - सच्चर कमेटी  आदि नहीं थे, राम बिलास - मायावती नहीं थीं | उन नेताओं की  बात और थी , उनमे बराबरी का भाव और रिश्ता था | अब भले  नेहरु -पटेल -गाँधी के बीच कोई जातीय फैक्टर  नहीं है , पर जैसे  ही आंबेडकर का नाम जुड़ता है , समीकरण बदल जाता है | और यह यथार्थ है | इसलिए मानना होगा कि उस अस्पष्ट कार्टून को नासमझ अध्यापक prejudiced व्याख्या दे सकता है , और अशिक्षित छात्र उसका मजाक बना सकता है | हमारा निवेदन है ऐसी संभावित भ्रामक स्थितियों से बचना चाहिए | मुझे पक्का विश्वास है विद्वानों ने उस समय इसमें कोई बुराई नहीं देखी होगी , वस्तुतः है भी नहीं , वर्ना वे स्वयं उसे हटा देते | इसके लिए उन्हें सजा के लिए आरोपित करना तो निहायत बचकाना होगा | इन पर विश्वाश नहीं करेंगे तो कहाँ , किस देश से लायेंगे superhuman बुद्धिजीवी ? क्या जो नई कमेटी बनी है वह बिना विश्वास के चलेगी ? क्या उनका किया धरा हर किसी के आपत्ति से मुक्त होगा ? संवाद - विवाद अवश्य चलना चाहिए पर एक अनुशासन के साथ |   

मंगलवार, 15 मई 2012

गीता उपदेश

अपने आनंद के लिए गीता उपदेशक से यूँ भी बात की जा सकती है :- " हे प्रभो ! कर्म करना तो हमारा अधिकार नहीं बल्कि कर्त्तव्य है | अधिकार तो तुम्हारे पास है की तुम हमें उसका फल दो , न दो |" या " यदि कर्म करना हमारा अधिकार ही मान लो , तो फिर तुम्हारा यह निश्चित कर्त्तव्य बनता है कि तुम हमें उसका पूरा फल दो | "

सोमवार, 14 मई 2012

Geeta Gyan

हम गीता के उपदेश को दूसरी तरह से समझने का प्रयास क्यों न करें ? यह किसी भगवान ने कहा हो या न कहा हो , हमें अपना काम मन लगाकर निष्ठांपूर्वक करना ही है | यह तो जीवन व्यापार है , कभी लाभ होगा तो कभी हानि | हानि की आशंका से हम काम से तो विरत नहीं हो सकते ! और जब हम अपना काम मनोयोग से करेंगे , तो प्रकारांतर से वह ईश्वर का आज्ञा पालन , उसकी पूजा हो ही जायगी ! यही कृष्ण का उपदेश भी था | उन्होंने कहा - कर्म करना तुम्हारा अधिकार है , फल की चाह करना नहीं | हमने उसे यूँ समझा - कि कर्म तो हमारा कर्तव्य ही है , उसके लिए हमें ताकीद क्या करना ? उसे न करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता | न कर्तव्य हमारा अधिकार है , न उसके फल की हमें चिंता है |

मेरी बात मानो

मेरी बात मानो 
[कविता ]

किसी की बात मानो न मानो 
मेरी बात मानो ,
माँ -बाप का कहा न मानो ,
गुरू का आदेश न मानो ,
किसी किताब में लिखी बात  न मानो
कोई धर्म न मानो ,
किसी परंपरा का पालन न करो ,
और ऐसा बार -बार कहने वाले 
जागृत- प्रबुद्ध गौतम बुद्ध 
की भी बात न मानो |
किसी की बात न मानो , लेकिन 
मेरी बात ज़रूर मानो ||  

Cartoon Vivad

आंबेडकर कार्टून विवाद पर मैं इतना जोड़ने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ कि मैं तो हमेशा कहता रहा हूँ कि राज्य दलितों को दे दो | वही सवर्ण हिन्दुओं और मुसलमानों , सबका दिमाग दुरुस्त करेंगे / कर पाएंगे | दलितों के सम्प्रति विरोध का विरोध ज़रा अब वे मुसलमान और उनके हिमायती सेकुलर लोग ज़रा कर के तो दिखाएँ ! किस मुँह से करेंगे जब वे स्वयं ७२ छेद वाली चलनियाँ हैं ? उन्होंने तो खुद डेनमार्की कार्टूनों का आत्यंतिक विरोध या उनका समर्थन किया था | वह कार्टून तो विदेश में बना था , इसलिए भारत में उसका इतना विरोध तो ज़रूरी न था | लेकिन यह कार्टून तो भारत में बना ,तो इसका विरोध क्या अमरीका में किया जायगा ? मज़ाक भी सामने वाले की सहनशीलता का अनुमान लगा कर ही किया जाना उचित होता है | फिर यह शक्ति संतुलन और प्रदर्शन का भी मुद्दा बनता है , भले उतनी भक्ति भावना या मूर्तिपूजा का पुट इसमें न हो | और फिर देखा देखी पाप , देखा देखी पुन्य का भी तो मामला है ! तो , जैसी करनी वैसी भरनी | यह तो राजनीति है | यदि सलमान रुश्दी का आना रुक सकता है , उनकी भाषा -शैली पर कोई छात्र शोध नहीं कर सकता , तो आंबेडकर पर कार्टून -युक्त किताब भी हटानी ही पड़ेगी | अब विरोध रत दलितों का कोई विरोध करे तो हम भी देखें ! हर घटना का कोई एब्सोल्यूट उत्तर नहीं होता | सभी सत्य समय / समस्या सापेक्ष होते हैं , इनके तुलनात्मक अध्ययन की आवश्यकता होती है | मैं तो कार्टून विरोधियों का आलोचक तब भी था , अब भी हूँ | लेकिन जब मैं हाजी याकूब का कुछ बिगाड़ नहीं पाया जिन्होंने कार्टूनिस्ट के सर पर ५ या ५० लाख या करोड़ की सुपारी घोषित की थी , तो अब मैं किस मुँह से इस उबाल का विरोध करूँ ? क्या सबको सारी डिमोक्रेसी सिखाने की ज़िम्मेदारी हमारी ही है ? वे खुद क्यों न कुछ समझें और उसका पालन करें , जिसकी नक़ल और लोग भी करें ? पर यह बात तो अपनी जगह पर है कि यदि मोहम्मद साहेब पर कार्टून न बनाया जाता तो इस से इस्लाम की प्रतिष्ठा कुछ बढ़ न गयी होती , या यदि आंबेडकर पर कार्टून किताब में शामिल न किया गया होता तो इस से राजनीति की पढ़ाई में कुछ कमी रह जाती |     

रविवार, 13 मई 2012

कार्टून विवाद

कार्टून विवाद में मैं इस बार नहीं पड़ूँगा । कुछ साल पहले भूलवश पड़ गया था । नतीजा , खास सेक्युलर मित्रों से हाथ गँवाना पड़ा ।

No Answer

[ कविता ]
प्रश्न करके ही 
क्या पा जायँगे बच्चे 
जब हम उनको 
कुछ बताएँगे ही नहीं , 
उन्हें अपने अलावा 
और किसी का उत्तर 
स्वीकार नहीं |