शुक्रवार, 30 सितंबर 2011

राजनीतिक कविता

* वे इनका
मजाक बनाते रहे
ये उनका
मजाक बनते रहे

न उन्होंने पत्रकारिता ,
साहित्य की
ज़िम्मेदारी निभाई ,
न उन्होंने
आदरणीय की भूमिका का
निर्वाह किया ।
मीडिया और मंत्री
यह खेल खेलते रहे
प्रचार की प्रत्याशा में
और लोकतंत्र सड़ता रहा
जनता के दिमाग में । #

* जो भी चैनल चलाओ
वहीं विज्ञापन ,
विज्ञापन ही विज्ञापन ! ##

* धमाकों और पटाखों का
कोई सूत्र मिले न मिले ,
अपराधी पकडे जाँय
या साफ़ छूट जायं
बयान कितने भी आते रहें, पर
भारतीय जनमानस तो
अपने हिसाब से
अपने गलत सही अनुमान
लगा ही रहा है ,
उलटे सीधे निष्कर्ष तो
निकाल ही रहा है,
उसे कैसे रोकेंगे ?
उसका क्या कर लेंगे ?
भले उससे क्या होगा ,
वह क्या बिगाड़ लेगा
देश के दुश्मनों का ?
देश का नक्शा
बिगाड़ने वालों का ?
पर वह मन तो बना रहा है
और जनता का मन
बहुत बड़ा वस्तु होता है
वह कुछ भी कर सकता है
किसी भी समय ।
आखिर जनता तो
सर्वोच्च है न !
सरकार न सही ,
नेता न सही ,
पुलिस न सही । #
########

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें