गुरुवार, 29 सितंबर 2011

विचारार्थ

१ - यह तो खैर मैं काल्पनिक अनुमान से कह सकता हूँ की प्रेम , सचमुच प्रेम , यदि उसमे कोई स्वार्थ न तुड़ा हो , तो एक समय में कईयों के साथ किया जा सकता है । #
२ - दलित हमारे पूज्य देवता हैं और मुसलमान हमारे सम्मानित अतिथि । इनका हर प्रकार से संरक्षण और पालन होना चाहिए । # ३ - कम्पूटर ज़रूरी होता जा रहा है । यह आज़ादी है या गुलामी ? # ४ - कष्ट यह है कि मुसलमानों के साथ बात भी नहीं हो सकती । संवाद नहीं हो सकता । शास्त्रार्थ , वाद -विवाद की बात तो छोड़ ही दीजिये । # ५ - मंदिर छोटा होना चाहिए । दिल [का मंदिर ] बड़ा होना चाहिए । # ६ - मैं कथक [नृत्य ] खूब देखता हूँ । मैं उसके शास्त्र के बारे में कुछ नहीं जानता , पर उसका लय -ताल मेरी शिराओं को थिर -सामान्य ,शांत -क्रम बद्ध कर देता है । इसकी तुलना मैं कम्पूटर के एक आपेरशन से करता हूँ । जैसे यफ - ५ बटन दबाने से वह सामान्य [नार्मलाइज] हो जाता है । #
७ - कहा जाता है - फलां का देहांत हो गया है । इसका क्या मतलब ? देह तो अभी रखा हुआ है , लोग उसे देखने आ रहे हैं ! फिर किसका अंत हुआ ? इसका मतलब देह ही आत्मा है - देहात्मा । जो अभी पड़ा है वह शरीर है । उसका अंत तब होगा जब उसे मिट्टी में दबा - या अग्नि में जला दिया जायगा।# ८ - बद तो अच्छा
बदनाम बुरा है
अच्छी नीति है ?
[हाइकु ] #####

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें